Thursday, December 27, 2012

मानसिकता में बदलाव



नियमों को बदलने से क्या होगा,
जब नियत ही न बदल पाई हो?
बात आसमां में उड़ने की क्या हो,
जब ज़मीं पर ही न संभल पाई हो!

बड़ी बड़ी बातों में नहीं रखा है, 
जवाब हमारी आजादी का कहीं। 
इज्ज़त-ओ-कद्र के दो लफ्ज़ ही पर 
जब ज़ुबां हमारी न अमल कर पायी हो!

बात न क़ानून की रह गयी है कहीं,
और न किसी इन्साफ में ही दम है। 
गली-नुक्कड़ की गन्दगी पे क्या बोलें,
घर-आँगन में ये कचरा क्या कम है?

ज़रूरत है मानसिकता में बदलाव की,
ज़रूरत है कुरीतियों पे पथराव की।
ज़रूरत है कि इस ज़रूरत को समझे हम,
और घर से ही इस कमी की भरपाई हो।

Picture Courtesy: Priyadarshi Ranjan

Monday, December 24, 2012

विनती



यह दीन दशा अब देख देश की,
रोती  प्याला, रोती हाला।
चहु ओर व्यथा है, औ' विषाद है,
थर-थर काँपे मन-साक़ी बाला।

कैसी मादकता छा गयी समाज में!
किसने ढारी यह कलुषित हाला!
निःशब्द खड़ी, नियति पे रोती,
बस शोक मनाती मधुशाला।

कुछ पुष्प ईश-अर्पण के तुम,
श्रद्धा से परे हटा देना,
विनती उस बाला की करना,
बनी रहे उसकी मधुशाला।


Dedicated to that brave girl who is still struggling for life in Safdarjung Hospital. 
May God give her immense strength to recover soon. Amen. 

Saturday, November 24, 2012

सागर की कशमकश


नदियों का प्रेम समर्पण का,
उनका तो प्रेम प्रवाह है बस। 
आग़ोश में लेता जाता फिर भी,
सागर की है कुछ कशमकश!

अथाह प्रेम समर्पण का
नदियाँ अपने संग लाती हैं,
पर पत्थर राहों में घिसकर
थोड़ी नमक भी घोल आती हैं।

ये चुटकी भर नमक नहीं
नदियों का मीठापन हरता है,
लेकिन यूँही बूँद-बूँद कर
सागर को खारा करता है।

और जब नदियाँ बादल बनकर
उड़ जाती सागर के ऊपर,
तो फिर बचता सागर में बस
उनका त्यागा नमक चुटकीभर!

सदियों के इस सिलसिले में
सागर खारा होता जाता है,
फिर भी प्रेम कहो कितना जो,
नदियों को फिर भी भाता है!


Inspired by बावली नदी

Dedicated to dear Anu di :) 

Picture Courtesy: http://www.nwfsc.noaa.gov/research/divisions/fed/oceanecology.cfm

Wednesday, November 21, 2012

The Two Angels (दो परियाँ)



मन सुरभित, जीवन सुरभित,
ये हर्ष, प्रमोद की वाहिनी,
करतीं मृदुल मुस्कान लिए
हैं अठखेलियाँ मनभावनी।

जो लेता इनको गोदी में,
खुद ही इतराता फिरता है,
खिंचवा इनके संग-संग फोटो
क्या ही इठलाता फिरता है!

इनकी ममता पूजा जैसी,
वात्सल्य स्वयं सौरभ जैसा,
महके घर-आँगन नित इनसे,
चहकें तो स्वर्ग कहाँ ऐसा !

इन्हें देख नयन यूँ चमके हैं,
ज्यों चाँद हो पूनम श्रावणी,
हैं मनमोहक मनभावनी,
ये हर्ष, प्रमोद की वाहिनी!

:) :)


To my lovely niece-twins

Monday, November 12, 2012

क्या ही रौशनी बख्शी है !



तेरी हर वो आहट
जो मुझे उतरन-सी लगी,
तूने मुझे उसमे
ऊँचाई ही बख्शी है !

ये कैसा दरिया है
कि जहाँ डूबा,
वहीं पार भी हुआ,
क्या ही ज़िन्दगी बख्शी है !

कभी तो ऐसा था 
कि सब्रो-करार न था,
अब इन थमी साँसों में भी
बन्दगी ही बख्शी है !

इक अँधेरा ही तो था,
ये जो उजाला है अभी,
दीप जो मन का जला है,
क्या ही रौशनी बख्शी है !

Saturday, November 3, 2012

कुछ यूँ जीना सीखा है


कोमल कुसुम ये मन-प्रसून,
और कठोर सा काल-पटल,
टकराया, गिरा, औ' फिर उठा,
है वज्र बना ये पिस-पिस कर.
अपनी कमज़ोरी से मैंने
ताकतवर बनना सीखा है.
हाँ, कुछ यूँ जीना सीखा है.

जिसने पीड़ा को अपनाया,
है जिसने रुद्न-गीत गाया,
उसने ही खुशियों का दामन
आजीवन मन में है पाया.
मैंने दुःख में भी दमभर कर
हँसना-मुस्काना सीखा है.
हाँ, कुछ यूँ जीना सीखा है.

हो लाख बला तूफानों में,
या चलना हो पाषाणों में,
होती हो कहीं अग्निवृष्टि,
मैं हूँ स्थिर इन प्राणों में.
डगमग से पथ पर भी मैंने
खुद संबल देना सीखा है,
हाँ, कुछ यूँ जीना सीखा है.


Picture Courtesy: http://www.markeirhart.com/storm-abstract-art-painting.htm

Friday, October 26, 2012

मिथ्यावरण


यह पूनम भी अमानिशा सी
अँधियारा लिपटाती जाती.
औ' बैरन-सी भयी बयार भी
कुटिल शीत कड़काती जाती.

उजियारा बस कहने को है,
अंतर तम का घोर कहर है.
बाहर के चकमक में उर ये
अंतस लौ झुठलाती जाती.

तज दे झूठी राग चमक की,
तज दे अब ना और बहक री,
चल रे अब तू भीतर चल री,
क्यूँ खुद को भरमाती जाती!


O my conscience,
hold me tight.
I'm swaying away,
escape the plight.
For it's so fake-
this outside light.
'n I'm ruining away
my so rich life.
I have to go back,
back- deep inside.
O my conscience,
hold me tight. 



Picture Courtesy: http://nmsmith.deviantart.com/art/Inner-Light-132644163

Sunday, October 14, 2012

कुरुक्षेत्र


कल की बात है 
कुरुक्षेत्र -
रक्त-रंजित था
आज फिर से
रक्त-रंजित है.
वो रक्त
जिसका स्राव भी ततक्षण
वहशी पी जाते हैं.
मानवता अब प्रतिदिन
बे-आबरू होती है
और अब कृष्ण भी कोई नहीं है.
हो भी क्यों?
कृष्ण तो उनका था ही नहीं
कभी भी नहीं
क्योंकि आज का कृष्ण
देखता है
कौन आम है, कौन खास है
उसका एकाधिकार तो अब
खापों के पास है.

Inspired by: Saru Singhal's why-should-i-be-ashamed

Picture Courtesy: http://www.dipity.com/tickr/Flickr_epistemology/

Wednesday, October 3, 2012

ओ अंधियारे के चाँद



ओ अंधियारे के चाँद तेरी
चमक फीकी पड़ती जाए...
काले से पखवाड़े में क्यों
काला तू पड़ता जाए ?.. 

कोई देखे, कोई ना देखे
अब किसे कौन समझाए...
इस ओर से काला होकर भी
उस ओर तू चमका जाए..

तू है धरा के पास-पास,
चमके, कभी तू धुंधलाए...
क्यों पूनम की चमक तुझे
इक दिन से ज़्यादा न भाए..

देख तो सूरज चमके कैसे
हर दिन एक सुभाए...
तुझे धरा से दूर चमकना
क्यों फिर रास न आए?

अमानिशा के बाद तुझे
फिर से मेरी याद सताए...
मेरी अंधियारी रातों को
फिर से तू चमकाए!!

Saturday, September 22, 2012

हमप्याले...


क्या खाली, क्या भरा यहाँ पे,
सबके हाथों में है प्याला.
सबका एक नशा निश्चित है,
सबकी अपनी-अपनी हाला.
कुछ पी-पी कर जीते हैं और
कुछ जी-जी कर पीते हैं,
नशा नहीं लेकिन सम सबका,
एक नही सबकी मधुशाला.

असमंजस का डेरा जमता,
कितने प्याले! कितनी हाला!
कौन नशा उत्तम है करता,
किसकी हाला, अव्वल हाला?
प्रियतम, पीने के पहले ही,
हम-प्याले तुम ऐसे चुनना,
जिनका एक नशा, इक हाला,
एक हो जिनकी मधुशाला.

Picture Courtesy: Jeet (Jeetender Chugh)

Friday, September 14, 2012

पंख ले पसार पंछी!


पंख ले पसार पंछी!

इक गगन है स्याह-श्यामल,
इक गगन है पाक-निर्मल,
इस गगन से उस गगन तक
उड़ने को तैयार पंछी!
पंख ले पसार पंछी!

आकाश ये सीमाविहीन है,
और धरा पे तू परीन है,
थाम मत अब ज़ोर दे कर
बाँध मन के तार पंछी!
पंख ले पसार पंछी!

रुक गया जो तू विलय को,
तो रहेगा हीन जय को,
है ऋतु बहते मलय की
कर ले साझा सार पंछी!
पंख ले पसार पंछी!

Friday, August 24, 2012

कुछ बूँदें ओस की...



दो नयना भरे-भरे से हैं
स्नेह से, आशाओं से...
जाने क्यूँ परे-परे से हैं
अनदेखी परिभाषाओं से...

मुख पे मद्धिम मुस्कान कहीं
इक स्वप्न कोई पुलकित करतीं...
कुछ डूबे से, कुछ उबरे से
मीठे ख़याल अंकित करतीं...

हाँ दूर कहीं उन स्वपनों में
नव-जीवन की आवृत्ति है...
जो था सुषुप्त, अब है जगा
मन नवल-रूप आकृति है...

सोचूं तो सबकुछ है मन में,
कितनी गहरी संतृप्ति है...
बस नेह भरा ही मन मेरा
प्रारब्ध है, स्मृति है...

Saturday, August 18, 2012

गंगा


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गंगा, पतित-पावनी गंगा-
तुम धरा पे अब कहाँ हो?
धुलेंगे क्या अब कर्म मेरे,
विषादज बन गए हैं जो?

श्वेताम्बरा- ये मलिन जल
तो मलयज भी रासता नहीं.
कह दो, कह दो, भरके हुंकार
कि इससे तुम्हारा वास्ता नहीं.

अब देवों की नदी कहाँ तुम?
दैत्यों के नगर जो बहती हो.
अमृत-सम थी, अब विषक्त हो
कैसे सब कुछ सहती हो?

लौट जाओ, लौट जाओ तुम
जाओ, जाना चाहे जहाँ हो
गंगा, पतित-पावनी गंगा-
तुम धरा पे अब कहाँ हो?


****************************
चित्र- गूगल से साभार

Wednesday, June 20, 2012

वनवास ३: तुम तो हो




जब एकांत में प्रशांति न हो,
और चित्त में विश्रांति न हो,
जब सपन-सलोने नयनों में
कौतूहल हो और कान्ति न हो,

जब ठिठके मुझसे मेरी छाया
यूँ जैसे कि पहचानती न हो
जब रूठे मुझसे मेरी तन्हाई,
मैं लाख मनाऊँ, वो मानती न हो,

तुम धीरे से पास बुलाना मुझे,
ख़ुद का एहसास दिलाना मुझे,
ताकि ये लगे कि तुम तो हो,
तुम्हारे न होने की भ्रान्ति न हो.



Picture Courtesy: Santanu Sinha

Friday, June 15, 2012

वनवास २: विरह, विषाद, वैराग्य


मत रोको, बहने दो अश्रुधार
है अंतर-निहित आत्म-उद्धार
ये विरह विलय की आगत है
करो स्वागत ले उर प्रेम अपार.
मत रोको, बहने दो अश्रुधार

क्षोभ नहीं, अभिनन्दन का
क्षण है ये जीवन-वंदन का
सम-भाव हो खोने-पाने में
यही है समुचित श्रेष्ठ विचार
मत रोको, बहने दो अश्रुधार

देखो जो बहे- बस पानी हो
दुःख की एकाध कहानी हो
ना नयनों से बह जाये कहीं
स्वर्णिम स्वप्नों का अम्बार
मत रोको, बहने दो अश्रुधार

Picture Courtesy: Priyadarshi Ranjan

Friday, June 8, 2012

वनवास १: स्वनिर्णित



वनवास कठिन होता है.
और होता है कुछ ज़्यादा ही
जब स्वनिर्णित होता है.

क्योंकि किसी ने कहा अगर
वनवास पे जाने को,
तो तुम चले भी जाओगे.
धर्म की, कर्त्तव्य की
मजबूरियों पर
तोहमत लगाओगे.
लेकिन जब
बिना किसी आग्रह
स्वयं ही जाना हो,
तो मन में कैकेयी, मंथरा
या फिर कौरव, शकुनी
कहाँ से लाओगे?

किसी ने बाँध दी
सीमायें अगर 
तो चुप रह जाना भी
सहज होता है.
जो स्वयं को स्वयं ही
बांधना पड़े,
तो वो असीम बल,
वो आत्म-विश्वास
कहाँ से लाओगे?

वनवास कठिन होता है.
और होता है कुछ ज़्यादा ही
जब स्वनिर्णित होता है.

Picture Courtesy: 'Embrace' by Sutapa Roy

Monday, May 28, 2012

सहगामिनी


सहगामिनी हो जीवन-पथ की,
सहभागी एक-से स्वप्नों की,
हाँ, उसके सुरमयी स्वप्नों की
संचयिका बनना चाहता हूँ.

वो कहे तो मैं सजदे कर लूँ,
या खुद के घुटनों पे हो लूँ,
मगर जहाँ वो सिर रख सके,
वो कन्धा देना चाहता हूँ.

सिर झुका कर बातें कर लूँ,
नेह उसका पलकों पे धर लूँ,
पर उसे सदा मैं आसमान की
बुलंदियों पर देखना चाहता हूँ.


हाँ, उसके सुरमयी स्वप्नों की
संचयिका बनना चाहता हूँ.


Picture Courtesy: http://www.nairaland.com/497893/kneel-down-feed-husband/3

Saturday, May 26, 2012

सीढियां


जो ऊपर की ओर जाती हैं,
वही सीढियां नीचे भी आती हैं.
और सीढियां चढ़ने-उतरने की
कई विधाएं भी पायी जाती हैं!

कुछ लोग एक-एक कदम बढ़ाते हैं,
कुछ लोग बस फांदते ही जाते हैं.
और कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो
हर सीढ़ी पर दोनों कदम जमाते हैं.

और वैसे ही उतरना भी कला है.
धीरे-धीरे उतरना बेहतर होता है,
क्यूंकि जल्दी-जल्दी उतरने में
लड़खड़ाने का ख़तरा ज्यादा होता है.

बात तो बस रिस्क की है,
कौन कितना उठा पाता है.
जो जितना रिस्क उठाता है
वो उतना ही बढ़ता जाता है.

लेकिन चढ़ने और उतरने के क्रम में
एक विशेष अंतर होता है,
कि कूदकर उतरना तो आसान होता है
मगर उछलकर चढ़ पाना-
ज़रा मुश्किल होता है !



Picture Courtesy: http://wellness-nexus.blogspot.com/2012/03/climb-steers-of-success.html

Thursday, May 24, 2012

परिपक्वता

The serene calmness and quietness of a candle (diya) gets more and established only with time!


 

तब ज़िद्दी बच्चों-सा
मांगता रहा तुमसे
और ये भी पता न था
कि माँगना क्या है!

अब समझ है इतनी
कि चाहिए क्या मुझे,
और जानता हूँ ये भी
कि माँगना क्या है!

फिर भी नहीं मांगता!
क्यूंकि मन में तुमने
विश्वास जो भर दिया है,
कि भला माँगना क्या है!

शायद यही परिपक्वता है!

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I used to ask for everything
like an unyielding child
without even knowing
what is that I actually need!

With time, we grow and realize
what should we actually ask for.
Now I know what is that
I really really need.

But I won't even ask you
to give me what I want!
For, you've bestowed me such a faith
that I can get it, whatever I want.

Perhaps this is what maturity is!
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Picture Courtesy: Santanu Sinha

Tuesday, May 15, 2012

उसका बोझ भारी है...



युवा आज का
कर्मी है, साक्षी भी,
युग-परिवर्तन का.
युवा आज का
सामंजस्य है
पाश्चात्य औ' पुरातन का.

युवा आज का
करता है विरोध,
जो अतीत ने थोपे थे
उन कुरीतियों का,
कुप्रथाओं का.
दहेज का, अस्पृश्यता का.

युवा आज का
कन्धा है वो
जो मिलकर चलता है,
स्त्री का, पुरुष का.
करता है बात
समान अवसरों का,
समान अधिकारों का.

सम्बल दो उसे,
निर्बलता  न गिनाओ,
उसका बोझ भारी है,
फिर भी बढ़ रहा है आगे.
युवा आज का!


Picture Courtesy: http://gogoihimanshu.blogspot.com/2011/03/indian-youth-and-politics-of-india.html

Tuesday, May 1, 2012

निर्वाण दो !





तुम्हारा सानिध्य हो
संकीर्णता से परे.
इन अस्थिर नयनों के
व्याकुल तरंगों को
चिर विश्राम दो,
मन को निर्वाण दो !

सफ़ेद चादर मन,
स्याह काली व्याकुलता,
बरबस लगते दाग,
कैसी ये अस्थिरता!
धुल जाए प्रारब्ध
ऐसा वरदान दो !
मन को निर्वाण दो !

निस्वार्थ अभिलाषाएं,
निजता का परित्याग,
अविरत चिर प्रखर
तप का विधान दो !
मन को निर्वाण दो !
 
Picture Courtesy: Priyadarshi Ranjan


P.S. http://lifewillbedifferentfromnowon.blogspot.in/2012/05/bear-grylls-that-she-is-not.html ) जब लिख रहा था तब बहुत विचलित था मन, और बार-बार यही ख्याल आ रहा था कि बस, बहुत हुआ, अब सब कुछ शून्य हो जाए... ताकि ना सुख रहे, ना दुःख... और इन सब से ऊपर उठकर मैं अपना जीवन निस्वार्थ  सेवा में सार्थक कर सकूं. मानता हूँ, निर्वाण परमगति है, परन्तु ईश्वर से यह मांगने की इच्छा जताकर कम-से-कम अपनी स्वार्थ-परक भावनाओं में लिप्त मन को शांत कर सकता हूँ.

Wednesday, April 25, 2012

ऐ दिल, थोड़ी-सी शरारत कर ले ~~


ऐ दिल, थोड़ी-सी शरारत कर ले,
ये शराफ़त नहीं साथ निभानेवाली
जश्न-ए-ज़िन्दगी का इक प्याला भर ले,
कि लौट के ये वापस नहीं आनेवाली
ऐ दिल, थोड़ी-सी शरारत कर ले ~~

तू जानता है कि होता नहीं ख़यालों में
इश्क की बात नहीं बात फ़साने वाली
बनके उड़जा तू वो पंछी जिसे परवाह नहीं
कब तलक आएगी वो ठौर ठिकाने वाली
ऐ दिल, थोड़ी-सी शरारत कर ले ~~

सुकूँ चाहता है तो घिरा हुआ-सा है क्यूँ?
बंद दीवारों में नहीं ताज़ी हवा आनेवाली
ऐ दिल, थोड़ी-सी शरारत कर ले ~~
ये शराफ़त नहीं साथ निभानेवाली


Picture Courtesy: Priyadarshi Ranjan 

Thursday, April 12, 2012

ओढ़ने की चादर


मैं, साढ़े-पांच का.
और साढ़े-पांच की
मेरी चादर भी.
हर रात बस
एक ही कशमकश
या तू थोड़ी लम्बी होती,
या मैं ही थोड़ा छोटा होता!

Picture Courtesy: http://2.bp.blogspot.com/

Thursday, April 5, 2012

काल-संकुचित!



वो कास्ट देखते हैं,
सब-कास्ट देखते हैं,
कुंडली देखते हैं,
टीपन मिलाते हैं,
दोष देखते हैं,
गुण मिलाते हैं.

कोई मिलान नहीं
भावनाओं का,
विचारों का,
अनुभूति का,
आधारों का,
सपनों का,
एहसासों का.

कैसा मिलन ये!
काल-संकुचित मैं!

Picture Courtesy: http://humblepiety.blogspot.com/2012/03/all-their-works-are-performed-to-be.html

Sunday, April 1, 2012

सखी, भाबोना कहारे बोले?

टैगोर की लिखी इन पंक्तियों को हिंदी के शब्द दे पाना मुश्किल है... फिर भी एक प्रयास अनुवाद का




============================================
ये चिंता क्यों सखी?
ये वेदना क्यों सखी?


ये जो तुम प्रेम के रट
दिन-रात लगाती हो,
क्या उसमे भी अपनी
पीड़ाएँ ही छुपाती हो?
इन नम आँखों से जो
प्रेम की धारा बह रही है,
बताओ उसमे कौन-सा
आनंद है जो पाती हो?


देखो! मेरे नयन से तो
सब प्यारा ही दिखता है!
बिलकुल नया-नया औ'
न्यारा ही दिखता है!
प्यारा नीला आसमान,
और प्यारी ये हरियाली,
रात की चादर ओढ़े
चाँद की मुस्कान निराली!
ये फूल खिलखिलाते से,
सदा हँसते और गाते से,
न आंसू हैं आँखों में,
न कोई विषाद है,
न तड़प है कोई
और न कोई आस है.


शाखों से टूटते फूल भी
गिरते हँसते-मुस्कुराते,
ये तारे भी हँसते हुए ही
निशा में घुलते जाते.
और घुलते-घुलते आता है
फिर से एक नया सवेरा,
ख़ुद को ख़ुश ही पाता है,
इन्हें देख कर मन मेरा.


सखी आओ पास मेरे,
अपनी ये ख़ुशी बाँट लूँ
ख़ुशी के गीत लिखूं,
ख़ुशी ही गुनगुनाऊं.
अपनी ख़ुशी से तुम्हारी
वेदना कम कर पाऊं,
आओ पास सखी,
तुम्हारे ग़म मिटा जाऊं.

प्रतिदिन की वेदना छोड़ो,
आओ एक दिन ख़ुशी मनाएं.
एक दिन सिर्फ ख़ुशी में झूमे,
और ख़ुशी में नाचे-गाएं.
ये चिंता क्यों सखी?
ये वेदना क्यों सखी?


=======================================================
Thanks to Tripta for sending me such a lovely song!
 Dedicated to Madhu Ma'am (Dr. Madhubala Joshi) from whom I learnt about Tagore in such details last summer.

Wednesday, March 28, 2012

अधजल गगरी

जब तक थोड़ी भी अज्ञानता है, तब तक सम्पूर्णता नहीं है... और जब तक सम्पूर्णता नहीं है, तब तक ये मन तो अधजल गगरी ही है ना... कैसे समझाऊँ इसे... ? 

काहे छलको रे गगरी अधजल,
समझो सुधि अपनी तेज चपल?
जब जानते हो जीवन है जल,
करना मुट्ठी में प्रयास विफल.

गिरना, लेकिन मत होना विकल
अंतर नित-नित तुम करना प्रबल,
जीता उसने निज जीवन को
सीखा जिसने है जाना संभल.

उर में अब प्रेम अगाध लो भर
धर लो मन में ये विचार विमल
चलना पथ पर तुम धीरज धर
छलके न कभी गगरी अधजल.

Picture Courtesy:http://www.paintingsilove.com/image/show/216073/indian-village-woman 

Thursday, March 22, 2012

मधुशाला तुम पे लिख डालूँ





इक सुन्दर, श्रृंगार की कविता
दिल करता तुम पे लिख डालूँ.
कुछ शब्द संजोऊँ मीठे से,
मधुशाला तुम पे लिख डालूँ.

पलकें जब उठती-गिरती हैं
खाली प्याला भर जाता है,
तुम्हे देख-देख ही नयनो में
पुरज़ोर नशा चढ़ जाता है.

किन शब्दों से मुख के रज का
करूँ वर्णन मैं इस नीरज का!
मन रजनि पा तुम सा मयंक,
बस तृप्त-तृप्त हो जाता है.

मुस्कान मृदुल मनमोहक जब
बनकर कुसुम मुख पर खिलती,
जी करता उनको चुन-चुन कर
इक माला उनकी गढ़ डालूँ.

कुछ शब्द संजोऊँ मीठे से,
मधुशाला तुम पे लिख डालूँ.

Picture Courtesy:Priyadarshi Ranjan

Dedicated to Abhishek Bhaiya and Bhabhi :) Wedding gift :)

P S : 'बच्चन' की 'मधुशाला' से इन पंक्तियों का न तो कोई सरोकार है, न ही तुलना की जा सकती है.... पाठकगण से अनुरोध है की इसे simply  एक श्रृंगार की कविता के तौर पर पढ़ें. आभार!

Entropy-ism 3




जो क्षण आया है, जाएगा,
क्या सोचो तुम रह जाएगा
इक तुम होगे, अतीत होगा,
बाकी सब कुछ बह जाएगा। 

यह जान प्रिये अनजान बनो,
अब छोड़ो हठ, नादान बनो,
हाथों में बस इक प्याला हो,
मन में हो मधु, मधुशाला हो।  
 

मधुशाला वो जो रस बरसे,
इक सुन्दर सा स्वरूप निखरे,
हों पुष्प जहाँ पल्लवित सदा,
नेह, प्रेम के भाव बिखरे.

मधुशाला हो अतीत को भूलना,
औ' भविष्य की चिंता न करना,
ये हो अविरत उत्सव का विधान,
जो है वर्तमान, उसी का गुणगान.


Picture Courtesy:Priyadarshi Ranjan

Thursday, March 15, 2012

इन उजालों से गुज़ारिश है...


काश कि इस दिल में
इक दरवाज़ा होता,
जिसे खोल देता मैं
और जी भर के भर लेता
इन उजालों को.

काश कि ख्वाबों की भी
कोई हार्ड डिस्क होती,
और स्टोर कर लेता मैं
इन लम्हों के
नायाब ख़यालों को.

काश कि इन पलों को
थमने की सहूलियत होती,
और अंतर के संगीत पर
थिरकता ये सुरमयी मन
ले जाता पराकाष्ठा पर
उमंग भरे तालों को.

Picture Courtesy: http://www.416-florist.com/flowerblog/holiday-flowers/white-flower-arrangements.html

Friday, March 9, 2012

अभिलाषा




मैं तो बिखरे तिनकों-सा था,
तुमने मुझको ऐसा ढाला,
खग-सा उड़ता मैं चिदाकाश में
संग-संग उड़ती ये मधुशाला.

तुम सिन्धु सुधा की निर्झर
मैं था प्यासा, पीनेवाला
तुमसे ही कुछ बूँदें पाकर
तृप्त हुई मेरी मधुशाला.

इन साँसों में अब बसना तुम,
उर में हो तुमसे ही उजाला,
स्नेह-मदिरा अविरत ढरती हो,
अक्षुण्ण रहे ये मधुशाला.

Picture Courtesy: Vimal Kishore

Monday, March 5, 2012

सूट नहीं करता


कुछ ख्यालों को पर्दों में ही रखा करो,
सब बेनकाब ही हों, ये सूट नहीं करता.

तमाम बातें यूँ दिल पे न लिया करो,
सब लाजवाब ही हों, ये सूट नहीं करता.

कभी चुपचाप खुद से भी कुछ कहा करो,
सब शोर-ए-आब ही हो, ये सूट नहीं करता.

हर हुस्न है दीद के काबिल यहाँ मगर
सब बेहिजाब ही हों, ये सूट नहीं करता.

हर जाम में होता है इक नशा 'मधुर'
सब में शराब ही हो, ये सूट नहीं करता.

Picture Courtesy: http://url123.info/3174ebe8

Monday, February 27, 2012

नाव


अच्छा ही है
कि नहीं हूँ उस नाव में
जो डोलती है, डगमगाती है,
और दूर तक
साहिल न दिखने पर
दलकती है, घबराती है.
कम-से-कम
अब इतमिनान तो है
कि इन पहाड़ी कंदराओं में भी
मेरे मन की नाव
विचारों के कई समुद्र
आसानी से पार कर जाती है
सुदृढ़ है, सुगढ़ है,
वीरतापूर्वक
बस बढ़ती ही जाती है.
ना दलकती है, ना घबराती है,
और तूफानों में भी हरदम
मदमस्त मुस्कुराती है,
क्योंकि पता है उसे
कि डटकर सामना करना ही
ज़िन्दगी कही जाती है.

Picture Courtesy: Sheshagiri Rao: Brahmaputra, Guwahati, India

Monday, February 20, 2012

ढिबरी


बिजली का बल्ब
जगमग, स्थिर, समतापी
ढिबरी की लौ
डगमग, अस्थिर, कालिखी
बल्ब शहरी, पढ़ी लिखी,
दुल्हन नयी-नवेली,
ढिबरी पुरानी सूत डली  
एक शीशी खाली
बल्ब का प्रकाश
साफ़ स्वच्छ अमीरी
ढिबरी की रौशनी
कुंठित काली ग़रीबी
बल्ब माने
सीना तान के चलना
ढिबरी माने
दुबकना भभकना
लुढकना फिसलना
क्या कहूं?
प्रारब्ध, प्रकृति या प्रवृत्ति!
या फिर
निज नियति की निवृत्ति!
क्योंकि
स्वच्छता में
कालिखी का
पता कहाँ चलता है!
और ये कि
एक बल्ब के लिए
सौ ढिबरीयों का तेल
कहीं और जलता है!

Friday, February 17, 2012

तज तुच्छ विचार, जगो तुम मन




तज तुच्छ विचार, जगो तुम मन  
हो सोच समग्र, सार्थक जीवन.

प्रतीक्षा में देव-मंडली खड़ी,
हैं उन्हें तुमसे आशाएं बड़ी.
होकर निर्जीव धर्म-पथ पर
अगणित हैं आत्माएं पड़ी,
उनमें जीवन संचार करोगे
ठान लो बस अब ये तुम मन.
तज तुच्छ विचार, जगो तुम मन

पोंछना उनके अश्रुधार और
मुख पर उनके मुस्कान लाना,
थामकर वेदना, पीड़ाओं को,
एक मधुर बंसी तुम बजाना.
पीड़ा-दुःख से कातर ना होगे
दृढ-निश्चयी हो आगे बढ़ो मन
तज तुच्छ विचार, जगो तुम मन

परोपकार, सेवा, साधना में
स्वयं को समाहित रखो मन,
अनुराग-सिक्त अनाहात को
रिपु-पाशों से रहित रखो मन.
एक नव-नूतन धरा का
अब तो सृजन करो तुम मन
तज तुच्छ विचार, जगो तुम मन
हो सोच समग्र, सार्थक जीवन.

This is a 'Prabhaat Samgiita', originally written in Bengali by Shrii Prabhat Ranjan Sarkar. Being one of my most favorite and inspiring song, I have tried to write the same in Hindi.
Here is the song in Bengali:
Man_ke_kono_chhoto_kaje

And here is the original lyrics:
Man_ke_kono
Picture Courtesy: Priyadarshi Ranjan


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English translation:

In any low thought
I will not allow my mind to fall.
No, no, I won't do petty, selfish, small things.
I'll seat my mind in the effulgence of meditation,
I'll create a new world.
This world and the celestial realms
are waiting for me
in breathless expectation.
I'll fulfill their hopes.
I'll cause the stream of life to flow.
Removing tears, I'll bring smiles.
Crying will cease and flutes will play.
On this earth will descend auspicious days.
Sorrows and pains will torment me no more.
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Original in  Bangla:

MAN KE KONO CHOT́O KÁJEI,
NÁVTE DOBO NÁ
NÁ, NA, NA, NÁVTE DOBO NÁ

DHYÁNER ÁLOY BASIYE DOBO,
KARABO NOTUN DHARÁ RACANÁ
NÁ, NA, NA, NÁVTE DOBO NÁ

MAN KE KONO CHOT́O KÁJEI,
NÁVTE DOBO NÁ

BHULOK DYULOK ÁMÁRI ÁSHE,
CEYE ÁCHE RUDDHA ÁVESHE
TÁDER ÁSHÁ PÚRŃA KARE
BAHÁBO PRÁŃER JHARAŃÁ
NÁ, NA, NA, NÁVATE DOBO NÁ

MAN KE KONO CHOT́O KÁJEI
NÁVTE DOBO NÁ

ASHRU MUCHE ÁNÁBO HÁSI
KÁNNÁ SARE BÁJABE GO BÁNSHII
MÁT́IR PARE ÁSABE SUDIN
KLESH JÁTANÁ KÁRO ROVE NÁ
NÁ, NÁ, NÁ, NÁVTE DOBO NÁ

MAN KE KONO CHOT́O KÁJEI
NÁVTE DOBO NÁ

(By Shrii Prabhat Ranjan Sarkar)
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Saturday, February 11, 2012

कैसे कहूँ मैं


बेटे-बेटियां पढाई-लिखाई, नौकरी-पेशे के सिलसिले में दूर किसी शहर में रहने लगे हैं.
माँ-बाप ने पाला-पोसा, बड़ा किया, बच्चों को लायक बनाया- पर आज वो अकेले हो गए हैं.
और करें भी तो क्या करें- बच्चे दूर हैं, व्यस्त हैं, नाम रोशन कर रहे हैं माँ-बाप का,
इन भावनाओं के बीच ये जो अचानक सा अकेलापन आ गया है, उसे "कैसे कहूँ मैं?"


कैसे कहूँ मैं
कि आजकल बहुत उदास रहती हूँ
तू इतनी दूर जो चला गया है,
बस तेरे ख्यालों के पास रहती हूँ.
तेरी ही फ़िक्र में तो
सारा जीवन काटा है
तेरी सारी खुशियों को, ग़मों को
अब तक मैंने ही बांटा है.
तेरी हर हार में संबल के
पुष्प संजोय हैं मैंने,
और हर इक जीत पर
ख़ुशी के आंसू रोये हैं मैंने.
तेरे लिए ही तो अपने कर्म को
सदा तपस्या सम माना,
तू चमके चाँद सितारों सा
यही सपना बस मन में ठाना.
आज तू चमक रहा है
दूर कहीं आसमान में,
बिलकुल वैसे ही
जगमग चाँद सितारों सा,
और तेरी चमक से
रौशन-रौशन सा है
मेरा भी छोटा-सा जहां
मेरी तपस्या सफल रही
बस यही तसल्ली दिया करती हूँ,
कैसे कहूँ मैं
कि आजकल बहुत उदास रहती हूँ.

तू इतनी दूर जो चला गया है!


Picture Courtesy: Priyadarshi Ranjan

Dedicated to you Maa :) 

Friday, February 10, 2012

स्वास्थ्य-चेतना


बचपन देखो पीड़ा भरा-सा 
दुःख का और लाचारी का
ग़रीबों को बिना इलाज,
शिकार भूख, बीमारी का! 

क्या होगा वैभव विलास
जो पीड़ा उनकी बाँट न पायें,
पढ़-लिखके भी उनके लिए
कुछ अच्छा न कर पायें!

एक उद्देश्य यहाँ ये भी हो,
'आरोग्य' प्रसार हम कर पायें, 
तृण-तृण से भी कुछ विशेष 
भीड़ में हम सब कर जाएँ !

इसीलिए विनती है सबसे
स्वास्थ्य-चेतना हम फैलाएं
'प्रथम सुख निरोगी काया है'
गर्व से हम सब कह पायें!

"So, Stay healthy, save money on medicine and contribute it for the poor!"

Picture Courtesy: http://publichealth.msu.edu/pph/index.php/academic-programs/graduate-certificate/international

Friday, February 3, 2012

...मेरे हर क्षण के सार रहे!




जीवन जब भीषण आंधी था,
तुम प्यार की बन बयार बहे,
था धुत नशा, पग डगमग जब,
संबल-से पथ पर हर बार रहे.

रौंदे मेड़ों की जब किनार
धारा जीवन की बिखरी थी,
तुम ही सबल, संवर्धक-से
जुड़ते तिनकों के तार रहे.

तम था इतना, तुम क्या दिखते!
नयना भी मेरे क्या करते !
फिर भी कितनी उत्कंठा से,
मेरे हर क्षण के सार रहे!

था छोड़ चला इक सृष्टि मैं,
जब नवजीवन के स्वागत में,
उस पार प्रिये तुम ही तुम थे,
तुम ही हो जो इस पार रहे!



Tuesday, January 24, 2012

जिजीविषा

 

विवाद, विषाद, उन्मत्त उन्माद,
अंतर था तम का अविरत प्रामाद.
अब है स्थिर, शांत, गंभीर,
न कोई रक्ति, न कोई वाद.

अंतरमन ने पूछा मुझसे,
अनुनय किससे, विमर्श कहाँ?
इस विविध राग के गान में,
उत्सर्ग कहाँ, उत्कर्ष कहाँ?

अब छोड़-छाड़  ये सोच विचार,
मन उड़ जा अब, कर जा तू पार,
चल दूर कहीं हैं नीरव नाद,
आनंद अविरत, प्रशांति अपार.

Such a chaos life has been!
O! the worldly desires,
the cause of suffering,
you'll fade away now.
Ah! I feel the tranquility,
and peace from within,
without any attachment
without any reasoning!

No dedication or devotion
or any spiritual elevation
is possible in the chaos.
O! my inner conscience,
take me away from here
to a far distant place,
in the sound of silence,
where bliss flows incessantly!

उन्मत्त उन्माद = severe madness/ restlessness
रक्ति = attachment
अनुनय= intercession, request
विमर्श= to take or consider other's opinion
उत्सर्ग=  dedication
उत्कर्ष= progress, elevation
नीरव नाद = the sound of silence
अविरत = incessant

Picture Courtesy: http://laist.com/2009/02/13/extra_extra_465.php

Sunday, January 22, 2012

सांवली



सांवली
हाँ, सांवली है वो!
और उसका रूप भी तो
इसी सांवलेपन से निखरता है!
उसका सांवलापन ही उसमे
कनक-सी आभा बिखेरता है!
उसके मुख-विन्द को
अनुपम-सा ओज देता है!
उसके होठो की मुस्कान को
माधुर्य-सिक्त कर देता है!
अगर वो गोरी होती,
तो ये बात होती ही नहीं!
इसीलिए तो सांवली है,
या फिर वो होती ही नहीं!

Wednesday, January 18, 2012

हदों तक


कभी हीरे-सा चमक उठे,
कभी धुंध में खोये रहे,
नींदों में जागते रहे,
उजालों में सोये रहे!
जब कभी मूक थे,
तो सुनते भी न थे,
अब आवाज़ मिली,
तो शोर मचाते हो!
क्यूँ तमाम बातों को 
हमेशा ही 
हदों तक खींच लाते हो!

Monday, January 16, 2012

योर हिंदी वाज़ कूल: A generation that was!


क्या आपको लगता है,
यूँही निकल आते हैं
किसी में हिंदी के पर?
हैरत न होगा जो कहूँ
कि हिंदी का सागर है
हमारा प्यारा घर!

बड़े ही प्रेम से पुत्र-पुत्र कहकर
पुकारती हैं मुझे,
मेरी ही माताश्री!
और मेरी नटखट शरारती बहने भी
कहती हैं मुझे
प्यारे 'भ्राताश्री'!

त्रेता औ' द्वापर की कहानियां
दूरदर्शन से भले ही बीत हो गयीं,
रामायण औ' महाभारत की परन्तु
हमारे घर में सदा की रीत हो गयी!

नानाजी को नमस्कार करते ही
उनके मुखसे 'चिरंजीवी भव:'
के शब्द निकलते थे!
और भीष्म ने क्या दी होगी
जितनी शिक्षा हमारे पितामह
स्वयं ही दिया करते थे!

पिताश्री स्वयं ही
काव्य के महासागर हैं,
और मेरे अनुज भी
शेर-ओ-शायरी में
उदीयमान तारावर हैं!


लोग कहते हैं तुम्हारी हिंदी ही
भला क्या कोई कम है !
सीधे-सीधे क्यूँ नहीं कहते कि
कमबख्त खानदानी प्रॉब्लम है!

अब कहिये इतने शब्दों का
बोझ मैं कब तक ढ़ोऊँ?
क्यूँ ना अपनी रचनाओं से
हिंदी के कुछ नए बीज बोऊँ?

इल्म है मुझे कि मेरी संतानें जब
बरसो बाद इन पौधों को देखेंगी,
पढ़ेंगी कितना पता नहीं, पर
'योर हिंदी वाज़ कूल' अवश्य कहेंगी!




Picture Courtesy: http://www.shutterstock.com/pic-47631088/stock-vector-cartoon-family-portrait.html

Sunday, January 15, 2012

एक नया आयाम देते हो!


एक सुनहरी धूप सरीखी,
अगणित त्रस-रेणु सी बिखरी,
तुम जीवन के कोहरे में भी
सु-सुषमा अविराम देते हो!
एक नया आयाम देते हो!


इक पग आगे, इक पग पीछे,
सीमित क्षणों को सींचे-खींचे,
शुष्क मरुस्थल-सी मिटटी में
मरुद्वीप का विराम देते हो!
एक नया आयाम देते हो!


हो घोर विषादों, प्रामादों में,
सृष्टि के अविरत अनुनादों में,
तुम ही अंतरमन के विहग को
चिर आनंद की उड़ान देते हो!
एक नया आयाम देते हो!


Like a gleam of sunshine in a cold foggy day,
like an oasis of water in a hot dry desert,
you always give a newer meaning to my life.
A meaning that I yearn for!
Despite all pains and sufferings of the worldly life,
you give my spirit a flight of bliss!
The bliss that I yearn for!

Saturday, January 7, 2012

कई बार ऐसा होता है!


कई बार,
मैं सोचता कुछ और हूँ!
कहता कुछ और ही हूँ!
और बताना
कुछ और ही चाहता हूँ!
लोग समझ नहीं पाते हैं!
बस विस्मित रह जाते हैं!
कई बार ऐसा होता है!

लेकिन ज़रूर कोई जादू है,
जो जान जाती हो तुम,
हमेशा ही
कि मैं क्या सोचता हूँ,
क्या ही कहता हूँ!
और क्या है वो
जो बताना चाहता हूँ!
आखिर ये कैसे होता है!
कई बार ऐसा होता है!

कई बार दो चीज़ें
जुडी हुई तो दिख जाती हैं,
मगर धागे नहीं दिखते!
वो महीन धागे,
जो जोड़ते हैं उन्हें!
फिर कैसे दिख पाता है तुम्हे
वो जो देखना होता है !
कई बार ऐसा होता है!