या फवें हों रुई की जैसे
खूब चले हैं बनठन कर और
गरज गरज इतराए हैं.
फिर से मेघ घिर आये हैं.
मन की सूखी धरा हमारी
व्याकुल तरस रही थी रस को.
देखो लेकर इन्द्र-कलश में
अमृत अविरत भर लायें हैं,
फिर से मेघ घिर आये हैं.
अंतर्मन की प्यास बुझेगी
कुंठा की सब झुलस हटेगी
तृप्त होंगे, मुस्कान खिलेगी,
सुख-संदेशा लायें हैं.
फिर से मेघ घिर आये हैं.
Dedicated to my college friends Arvind, Shishir, Sheetal, Nitin, Ajit and Rajesh
मेघों से बहुत शिकायत है
ReplyDeleteआपकी सुन्दर रचना पढ़कर याद आ गये गिले शिकवे
ati sunder........
ReplyDeletebahut acha likha hai...
ReplyDeleteNice composition.. Bas wish karo ki ye megh bin barase na jaaye.. aajkal Chhapra mein inki bahut jarurat hai...:)
ReplyDeleteamazing write up and photograph!
ReplyDeleteसुन्दर!
ReplyDeleteसुंदर रचना!
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