Friday, September 17, 2010

फिर से मेघ घिर आये हैं



चांदी की सी चमचम इनमें
या फवें हों रुई की जैसे
खूब चले हैं बनठन कर और
गरज गरज इतराए हैं.
फिर से मेघ घिर आये हैं.

मन की सूखी धरा हमारी
व्याकुल तरस रही थी रस को.
देखो लेकर इन्द्र-कलश में
अमृत अविरत भर लायें हैं,
फिर से मेघ घिर आये हैं.

अंतर्मन की प्यास बुझेगी
कुंठा की सब झुलस हटेगी
तृप्त होंगे, मुस्कान खिलेगी,
सुख-संदेशा लायें हैं.
फिर से मेघ घिर आये हैं.

Dedicated to my college friends Arvind, Shishir, Sheetal, Nitin, Ajit and Rajesh

7 comments:

  1. मेघों से बहुत शिकायत है
    आपकी सुन्दर रचना पढ़कर याद आ गये गिले शिकवे

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  2. Nice composition.. Bas wish karo ki ye megh bin barase na jaaye.. aajkal Chhapra mein inki bahut jarurat hai...:)

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