Sunday, December 12, 2010

किसी की सिसकियों में खुद को तलाश लें


कितनी अनुपम ये सृष्टि है!
पर छोटी अपनी दृष्टि है. 

कहीं हैं भोर कहीं सांझ हैं,
कहीं अति कहीं अनावृष्टि है. 

कहीं कलकल बहता विलास है,
और कहीं बस बुझती आस है. 

किसका है सुख, किसकी विपदा?
कौन है आया रहने को सदा? 

क्यूँ न हम सत्कर्म साध ले. 
थोड़ी पीड़ा उनसे बाँट लें. 

आओ मिला धरती आकाश लें. 
किसी की सिसकियों में खुद को तलाश लें.
 

Dedicated to Dada Shankarsananada and Didi Arpana, who inspire me to come back into a life of value, a life to work for others who are deprived.


P.S.: The vedios Dada showed us during Singapore Jagruti on the situation of Haiti were quite moving.
AMURT and AMURTEL though are working ferrociously towards alleviating the multitudes of pains people are suffering from. If we can do something, we should just do it. http://amurthaiti.org/
  


Tuesday, December 7, 2010

अंतर्मन


उडती है,
मन के आकाश में
तू उन्मुक्त विचार सी.
दुःख में धैर्य,
सुख में सखी,
तू जीवन आधार सी.
तू अनादि,
अनंत, अजीर्ण
पतझड़ में बहार सी.
तम में और  
प्रकाश में सम,
तू ही बिम्ब, तू आरसी.




Dedicated to my Nani, my forever inspiration for endurance and perseverance.

Saturday, November 27, 2010

भक्ति गीत - भोजपुरी में


पतझड़ के सूखा पत्ता हरिअर बना द~~
हमरो अन्दर तनी-सा भक्ति जगा  द~~ --२

तू ही एक प्यारा बाड़ा~
तू ही एक दुलारा बाड़ा~
डूबल बा नाव हमार
तू ही एक किनारा बाड़ा
तहरे से आस लगल बा

नईया अब पार लगा द~~

हमरो अन्दर तनी-सा भक्ति जगा  द~~  --२

तहरा बिना जीहब कईसे
तहरा बिना मरब कईसे
तहरा बिना हसल कईसन
तहरा बिना रोअल कईसन
मन में अंधार भईल बा~
आके अब दीप जला द~~
हमरो अन्दर तनी-सा भक्ति जगा  द~~  --२

पतझड़ के सूखा पत्ता हरिअर बना द~~
हमरो अन्दर तनी-सा भक्ति जगा  द~~  --२



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O Supreme Lord! 
Change my life from a dried autumn leaf
into lush green by arising devotion in my heart.


O Lord! the most beloved one, 
my boat is sinking into the worldly sea
Please move it to the shore. 
O Lord!Without you, 
there is no meaning in living or even dying,
no meaning in laughing or crying. 
The deep darkness prevails inside me
Please lit the candle of devotion in my heart. 

Change my life from a dried autumn leaf
 into lush green by arising devotion in my heart.


Wednesday, November 17, 2010

तुम्हारी प्यारी बातें

अब जाना है मैंने

कि एहसास होता है कैसा,

बाँछों के खिल जाने में.

अब जाना है मैंने

कि ख़ुशी होती है कितनी,

पुरानी बातें याद आने में.

भूली बिसरी यादें,

बिन निंदिया की रातें,

याद आती हैं मुझे,

तुम्हारी प्यारी बातें.
 

Sunday, November 14, 2010

अर्थ



इस ओर की उलझन नादां है,

उस ओर हकीक़त क्या देखूं?

हैं लाख छिपे अरमां दिल में,

सपनो के पार मैं क्या देखूं?


रुत मिलन की आएगी फिर से,

है इंतज़ार अब क्या देखूं?

इस रास्ते गुज़री है बहार,

श्रावण-श्रृंगार मैं क्या देखूं?


जो छीन लिया तो क्या जीते?

औ' देकर किसी को क्या हारे?

हर बात के मतलब हैं हज़ार,

अब जीत-हार मैं क्या देखूं?

Wednesday, October 27, 2010

सजल आँखें


सपनें जहाँ बसते थे,

अरमान जहाँ जगते थे,

बयां करती थी जो हर पल

दिल के उमंगों को,

वो आज यूँ ख़ामोश हैं

जैसे फूल हो खिज़ा के.

तुम्हारी सजल आँखें.

Picture Courtsey: http://www.paintingsilove.com/image/show/127127/sadness
 Dedicated to my Dad, from whom I inherit writing six liners.

प्रिय तुम यूँही



प्रिय तुम यूँही दीपक सा बन,
प्राणों को उजियारा रखना,
प्रेम-नदी में खुद को एक
औ' मुझको एक किनारा रखना.


जब होते तुम पास हमारे,
मन मंद-मंद मुस्काता है,
और जब होते दूर कभी तो,
यादों में खो जाता है.
एक मधुर मुस्कान के जैसे
होंठों का इशारा रखना
प्रेम-नदी में खुद को एक
औ' मुझको एक किनारा रखना.

क्या हुआ जो जीवन पथ में
कंटकों के शर उगे हों,
क्या हुआ 'ग़र नियति में
दो-चार पल दूभर हुए हों,
तुम कोमल कुसुम  बिछाकर
मन के आँगन को प्यारा रखना
प्रेम-नदी में खुद को एक
औ' मुझको एक किनारा रखना.


प्रिय तुम यूँही दीपक सा बन,
प्राणों को उजियारा रखना
Dedicated to Swayam Bhaiya and Pooja Bhabhi, the sweet inspiration of living in love!!

Wednesday, September 22, 2010

बढ़ता रह निरंतर


तू प्रगति पथ पर,
बढ़ता रह निरंतर.


सरिता की भांति
पीछे छोड़ता चल
राह के चट्टान पत्थर,
बढ़ता रह निरंतर.


झील की भांति
सीमित रखा कर
अपनी इच्छाएं प्रबल,
बढ़ता रह निरंतर.


सागर की भांति
विशाल करता चल
अपना ह्रदय पटल,
बढ़ता रह निरंतर.
 
छात्र की भांति
सीढीयाँ चढ़ता चल
लौकिक से अलौकिक पर,
बढ़ता रह निरंतर.
 
Dedicated to my Hindi Teacher Shri B N Chaturvedi.When I wrote this poem in my 6th grade, my teacher Sh. B N  Chaturvedi encouraged me a lot towards writing. Posting this piece is a tribute to him.

Friday, September 17, 2010

फिर से मेघ घिर आये हैं



चांदी की सी चमचम इनमें
या फवें हों रुई की जैसे
खूब चले हैं बनठन कर और
गरज गरज इतराए हैं.
फिर से मेघ घिर आये हैं.

मन की सूखी धरा हमारी
व्याकुल तरस रही थी रस को.
देखो लेकर इन्द्र-कलश में
अमृत अविरत भर लायें हैं,
फिर से मेघ घिर आये हैं.

अंतर्मन की प्यास बुझेगी
कुंठा की सब झुलस हटेगी
तृप्त होंगे, मुस्कान खिलेगी,
सुख-संदेशा लायें हैं.
फिर से मेघ घिर आये हैं.

Dedicated to my college friends Arvind, Shishir, Sheetal, Nitin, Ajit and Rajesh

Tuesday, May 25, 2010

पूर्णमासी



एक आँख में काजल,
दूसरे में बादल
छाए हुए हैं,
कहाँ उदासी है?
घेरे में टूट रहा है
'चाँद' का दम,
और सभी समझते हैं,
आज पूर्णमासी है.

This is not my composition, it is my dad's, who has always been a great source of inspiration for me.

Tuesday, February 23, 2010

ओ तन्हाई


ओ तन्हाई,
मुझसे बातें कर.

दिल का कोई कोना,
कहीं रो रहा है.
सूझता न कुछ, जाने
क्या हो रहा है?
पास आ ज़रा,
अब तो ना मुकर.
ओ तन्हाई,
मुझसे बातें कर.

राह में देखे हैं मैंने
सैकड़ों उल्फत-दगा.
छोड़ सपनों के उड़ान,
अब मन जगा.
हाथ ले तू थाम,
देखता है किधर?
ओ तन्हाई,
मुझसे बातें कर.


बाँध ले मुझको,
कहीं ना छूट जाऊं.
जोड़ दे हिम्मत,
कहीं ना टूट जाऊं.
खुद पे खामोशी का,
ऐसा हो असर!
ओ तन्हाई,
मुझसे बातें कर.

Picture courtsey: http://www.randyyork.net/7182.html

Tuesday, February 16, 2010

अमृत और विष


अमृत और विष
इस धरा पर,
साथ साथ मिलते हैं.
किसने कहा कि उसे
खुशियाँ ही न मिली?
और कौन है यहाँ जो
ग़म में न डूबा हो?
यहाँ पर हर मुस्कान
आंसू कि धारा में बहती है.
और हर दर्द में
एक ख़ुशी छिपी होती है.

Picture Courtesy: http://melissaayr.com/tag/abstract/ 

Sunday, February 14, 2010

मन, तूने क्या पाया था?


मन, तूने क्या पाया था?

नियति नहीं खेलती
मृग-तृष्णा का खेल.
नित्य यहाँ होता है
विरह और मेल.
फिर भ्रमितों की भांति
तू क्यूँ भरमाया था?
मन, तूने क्या पाया था?

अज्ञान का तिमिर भी
है समय का बंधक.
मंथन के प्रकाश में
हो जाता है पृथक.
व्यर्थ की मादकता में
तू क्यूँ डगमगाया था?
मन, तूने क्या पाया था?


त्रिवेणी सा नहीं होता
हर घाट यहाँ पर.
श्वेत-श्यामला जहाँ
मिल जाएँ उमड़ कर.
बहती धारा का क्षोभ
तूने क्यूँ मनाया था?
मन, तूने क्या पाया था?

सत्कर्मों का हर साधी,
आराध्य नहीं होता है.
और विनीत है वो सदैव
बाध्य नहीं होता है.
जीवन के उपवन में क्या
पारिजात खिल आया था?
मन, तूने क्या पाया था?

Picture Courtesy: http://vwoopvwoop.wordpress.com/2011/12/01/respecting-other-peoples-grief/