Wednesday, February 27, 2013

अब रात कहाँ आती है यहाँ!



इक दौर मुक़म्मल होता था
सच-झूठ का, जीत-हार का,
इक दौर था जीने-मरने का,
इक दौर था नफरत-प्यार का.
अब तो जीते जो हारा है,
सच से अब झूठ ही प्यारा है,
कि कई नावों में पैर यहाँ,
ढूंढे अब कौन किनारा है!
कोई बूझ के भी अनबुझ सा है,
कि फेक है क्या सचमुच सा है,
होते थे कभी दिन-रात यहाँ,
अब तम-प्रकाश का फर्क कहाँ?
दिन के घनघोर उजाले में
अंतस में तम घर करता है,
अब रात कहाँ आती है यहाँ,
सबकुछ बेदार चमकता है!

Saturday, February 16, 2013

मन माटी रे!




सुख की वृष्टि, दुःख का सूखा,
कभी तुष्ट, कभी प्यासा-भूखा,
वन हैं, तृण है, नग है, खोह है,
विस्तृत इसकी चौपाटी रे!
मन माटी रे! 

नेह नीर से सन सन जाए,
कच्चे में आकार बनाए,
और फिर उसको खूब तपाए,
ये कुम्हार की बाटी रे!
मन माटी रे! 

मेड़ बना चहु ओर जो बांधे,
फिर क्या कलुषित लहरें फांदे!
तुष्ट ह्रदय सम शीत उष्ण जो,
सुफल तरुवर उस घाटी रे!
मन माटी रे! 

जो बहाव को बाँध न पाए,
या कच्चे में तप ना पाए,
और लहरों में घुलता जाए,
खुद की नियति फिर काटी रे!
मन माटी रे!