Thursday, January 9, 2014

फिर से रंग दे!



मन कलिक-कालिमा लिप्त हुआ,
नयनों में भी बस धुआं-धुआं,
अधरों की हंसी भी खोयी सी,
अंतस का दीप भी बुझा हुआ.
इस रंगहीन को अपना संग दे,
रंगरेज़ मेरे, चल फिर से रंग दे!

बीती का बोझ बड़ा भारी है,
इसमें दबती दुनिया सारी है.
किसका पथ निष्कंटक होता है,
किसमें केवल कुसुम क्यारी है!
बीती बिसार, पग नव-पथ धर दे,
रंगरेज़ मेरे, चल फिर से रंग दे!


रंग पक्का कच्चे से ही होता है,
वो ही पाता है, जो खोता है,
कौन ही अथक निखर पाता है,
जो ख़ुद ही सपनों में सोता है!
अब मन बसंत, तन धानी कर दे,
रंगरेज़ मेरे, चल फिर से रंग दे!