Friday, August 24, 2012

कुछ बूँदें ओस की...



दो नयना भरे-भरे से हैं
स्नेह से, आशाओं से...
जाने क्यूँ परे-परे से हैं
अनदेखी परिभाषाओं से...

मुख पे मद्धिम मुस्कान कहीं
इक स्वप्न कोई पुलकित करतीं...
कुछ डूबे से, कुछ उबरे से
मीठे ख़याल अंकित करतीं...

हाँ दूर कहीं उन स्वपनों में
नव-जीवन की आवृत्ति है...
जो था सुषुप्त, अब है जगा
मन नवल-रूप आकृति है...

सोचूं तो सबकुछ है मन में,
कितनी गहरी संतृप्ति है...
बस नेह भरा ही मन मेरा
प्रारब्ध है, स्मृति है...

Saturday, August 18, 2012

गंगा


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गंगा, पतित-पावनी गंगा-
तुम धरा पे अब कहाँ हो?
धुलेंगे क्या अब कर्म मेरे,
विषादज बन गए हैं जो?

श्वेताम्बरा- ये मलिन जल
तो मलयज भी रासता नहीं.
कह दो, कह दो, भरके हुंकार
कि इससे तुम्हारा वास्ता नहीं.

अब देवों की नदी कहाँ तुम?
दैत्यों के नगर जो बहती हो.
अमृत-सम थी, अब विषक्त हो
कैसे सब कुछ सहती हो?

लौट जाओ, लौट जाओ तुम
जाओ, जाना चाहे जहाँ हो
गंगा, पतित-पावनी गंगा-
तुम धरा पे अब कहाँ हो?


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चित्र- गूगल से साभार