***************************
गंगा, पतित-पावनी गंगा-
तुम धरा पे अब कहाँ हो?
धुलेंगे क्या अब कर्म मेरे,
विषादज बन गए हैं जो?
श्वेताम्बरा- ये मलिन जल
तो मलयज भी रासता नहीं.
कह दो, कह दो, भरके हुंकार
कि इससे तुम्हारा वास्ता नहीं.
अब देवों की नदी कहाँ तुम?
दैत्यों के नगर जो बहती हो.
अमृत-सम थी, अब विषक्त हो
कैसे सब कुछ सहती हो?
लौट जाओ, लौट जाओ तुम
जाओ, जाना चाहे जहाँ हो
गंगा, पतित-पावनी गंगा-
तुम धरा पे अब कहाँ हो?
****************************
चित्र- गूगल से साभार
मार्मिक अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर....
ReplyDeleteगर लौट जाए गंगा, शायद तब समझेगा मानव....या तब भी नहीं??
बहुत दिनों बाद आपको पढ़ पाए.
अनु
wonderful expression Madhuresh. It's very profound!
ReplyDeleteअमृत-सम थी, अब विषक्त हो
ReplyDeleteकैसे सब कुछ सहती हो?,,,,
बहुत ही बेहतरीन अभिव्यक्ति,,,बधाई
बहुत दिनों बाद आपकी रचना पढ़ने को मिली,,,,
RECENT POST...: शहीदों की याद में,,
सच्चाई से कही गयी बात अच्छी लगी.....
ReplyDeletebahut hi achchhi rachna.. satya ki behtareen abhivyakti hai..
ReplyDeleteदैत्यों के नगर जो बहती हो.
ReplyDeleteअमृत-सम थी, अब विषक्त हो
कैसे सब कुछ सहती हो?
सच कहा..... गहरी अभिव्यक्ति
आह्वान से पूर्व उन वजहों को ढूंढना है ... जिसने पवन गंगा को लुप्त होने पर विवश किया , उन कारणों को हटाकर ही हम गंगा को पा सकते हैं ....
ReplyDeletemaine bhi kuch samay pehle isi vishay par kavita likhi thi....
ReplyDeletesach me ganga jo hamne vishakt kar diya hain.
लौट जाओ, लौट जाओ तुम
ReplyDeleteजाओ, जाना चाहे जहाँ हो
गंगा, पतित-पावनी गंगा-
तुम धरा पे अब कहाँ हो?
अद्धभुत अभिव्यक्ति !!
विकल करती रचना..
ReplyDeleteबहुत बढिया...
ReplyDeleteगंगा का लुप्त होना चिंता का कारण तो है...
बहुत दिनों बाद आपकी पोस्ट आई है?
बहुत खुबसूरत है पोस्ट।
ReplyDeleteBeautiful expressions...expressed in beautiful lines...
ReplyDelete