Wednesday, August 5, 2015

जागो कर्मयोगी

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"तम-प्रकाश से पूछता रहा मैं- 
कौन हूँ मैं, कहो कौन हूँ मैं ? 
सब कुछ में कुछ भी नहीं मैं,
कुछ-कुछ में भी सब कुछ ही मैं!"
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सूर्य प्रखर है, तेज प्रहर है,
जगमग रौशन है जग सारा,​
सारी सृष्टि जाग चुकी है,
क्यों तेरे मन में अँधियारा ?

हर निशा का आँचल तुझको
दे गया है एक सितारा,
तम का आलिंगन होता है,
सदा नए सुबह का इशारा। 

ये भोर है जीने का, और
जी कर कुछ कर जाने का,
मुट्ठी बंद कर, खोल ले आँखें,
अवसर आते नहीं दोबारा!  

आज ठान ले आलस तज कर,
जीवन-कला की कहती ज्वाला-
'कर्मयोग' का पथ चलना है,
सुधि में भी औ' परे सुध-कारा!



Picture Courtesy: http://cdn.dailypainters.com/paintings/_other_side_of_the_earth__abstract_landscape_day_a_d8de0c0927cf4da0c56b51c39a0e669d.jpg