Friday, November 7, 2014

जीवन पूरन कर आई!



अरसों-बरसों से सूखी-सी
सब सन गयी औ' लिपट आई,
सुमनों से संचित मन की धरा
खुशबू से महक-महक आयी।

नव-जीवन अभिनन्दन हेतु
वंदन, चन्दन भी कर आई,
कर आलिंगन, मिल मन से मन
तन-मन सब अर्पण कर आई। 

जो बिम्ब बसा इन नयनों में,
उनपे ही नयन निमन आई,
नित-नित जो नव-नव रूप गढ़े,
उस नेह का नर्तन कर आई।

बहती श्वांसों की गंगा में,
वो डूबी, और उबर आई,
बस प्रेम को पाकर जाना कि
सब जीवन पूरन कर आई।


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Saturday, August 2, 2014

प्रेम-पाती



मन की अवनि पर धूप खिला,
नव जीवन को आधार मिला,
बीता तम घन, बीती रातें,
जब प्रीत मिला, मनमीत मिला।

नव-स्वप्नों का अम्बार लिए,
जीवन स्वागत हेतु आई,
खुशबू बिखरी चहु ओर दिशा,
सुमनों की बरखा कर लाई।

जीवन कोरा कागज़ सा है,
प्रियतम के नेह है रंग सभी,
हर कोना रंग भर जाएगा,
जो साथ भरेंगे रंग कभी।

दो जीवन का ये विलय सदा,
अनुभूति का आधार बने,
हो अक्ष-अक्षिका सा तालमेल,
और मधुर मधुर संसार बने।


Picture Courtesy: http://images2.layoutsparks.com

Saturday, July 12, 2014

Rebirth

Dedicated to my friend/colleague Josh White, who is fighting his war against Cancer. I wish him a speedy recovery.


In the early hours of dawn,
when only a few were awake,
a plantlet was carving its ways
to catch the bit of scanty rays. 

The night past was dark,
'n the veil of ignorance stark,
when nothing was conscious,
and nothing had any spark.

But before the rays could reach,
the dark clouds covered the sky.
The wind blew with all its might,
the rain poured across the sight.

It lost a few leaves, a few buds,
but stoood firm against the cope, 
for the rays that it was hoping for
were indeed the rays of hope.

The clouds, the wind and the rain,
it suffered with calm all the strain,
and holding its roots it stood,
persevering through again 'n again. 

And now it blooms and fruits,
its existence speaks of its passion,
to have faith 'n determination,
'coz it's all only in the perception. 


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Overcoming all the hardships,
traversing through the hard rocks,
may we welcome our rebirth,
accepting all the toils with mirth.
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Picture courtesy: http://www.myhdwallpapers.net/slice-of-paradise/154/

Friday, June 13, 2014

क्षुद्रता


मन मेरा जुगनू की भांति
बुझता औ' जलता रहता है।
इक तुच्छ क्षुद्र सा भाव लिए
चहु ओर भटकता रहता है।

तुम श्रोत हो अविरल रश्मि के,
तुम्हे पाने से क्यों डरता है!
क्यों अपनी ही मर्यादा को
साकार समझता रहता है!

कितना ही तुच्छ हो कोई भी,
इक अहम खटकता रहता है।
बंधकर ख़ुद की सीमाओं में,
ख़ुद से ही लड़ता रहता है।

तुम नेह-प्रेम के सागर हो, 
ये खड़ा किनारे रहता है।
डूबा तो दम भर जाएगा,
ये सोच डुबकी से डरता है

तुम स्वयं सत्य हो, स्वयं चित,
आनंद तुम्ही में रहता है।
फ़िर भी जग की पीड़ाओं को
अविराम ये सहता रहता है।

तुम्हे पाने को, मिल जाने को
ये सदा तरसता रहता है।
औ' बुझते, जलते अंतस की
उत्कंठा प्रज्ज्वल करता है!



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Thursday, January 9, 2014

फिर से रंग दे!



मन कलिक-कालिमा लिप्त हुआ,
नयनों में भी बस धुआं-धुआं,
अधरों की हंसी भी खोयी सी,
अंतस का दीप भी बुझा हुआ.
इस रंगहीन को अपना संग दे,
रंगरेज़ मेरे, चल फिर से रंग दे!

बीती का बोझ बड़ा भारी है,
इसमें दबती दुनिया सारी है.
किसका पथ निष्कंटक होता है,
किसमें केवल कुसुम क्यारी है!
बीती बिसार, पग नव-पथ धर दे,
रंगरेज़ मेरे, चल फिर से रंग दे!


रंग पक्का कच्चे से ही होता है,
वो ही पाता है, जो खोता है,
कौन ही अथक निखर पाता है,
जो ख़ुद ही सपनों में सोता है!
अब मन बसंत, तन धानी कर दे,
रंगरेज़ मेरे, चल फिर से रंग दे!