मन मेरा जुगनू की भांति
बुझता औ' जलता रहता है।
इक तुच्छ क्षुद्र सा भाव लिए
चहु ओर भटकता रहता है।
तुम श्रोत हो अविरल रश्मि के,
तुम्हे पाने से क्यों डरता है!
क्यों अपनी ही मर्यादा को
साकार समझता रहता है!
कितना ही तुच्छ हो कोई भी,
इक अहम खटकता रहता है।
बंधकर ख़ुद की सीमाओं में,
ख़ुद से ही लड़ता रहता है।
तुम नेह-प्रेम के सागर हो,
ये खड़ा किनारे रहता है।
डूबा तो दम भर जाएगा,
ये सोच डुबकी से डरता है।
तुम स्वयं सत्य हो, स्वयं चित,
आनंद तुम्ही में रहता है।
फ़िर भी जग की पीड़ाओं को
अविराम ये सहता रहता है।
तुम्हे पाने को, मिल जाने को
ये सदा तरसता रहता है।
औ' बुझते, जलते अंतस की
उत्कंठा प्रज्ज्वल करता है!
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मन की दुनिया ही कुछ ऐसी है मधुरेश भाई. अपने मनोभावों को सही शब्द दिए हैं आपने.
ReplyDeleteअति सुन्दर..... मन के प्रवाहमयी भाव
ReplyDeleteतुम स्वयं सत्य हो, स्वयं चित,
ReplyDeleteआनंद तुम्ही में रहता है।
फ़िर भी जग की पीड़ाओं को
अविराम ये सहता रहता है।
.बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति !!
बहुत सुन्दर भाव.....
ReplyDeleteढेरों दुआएँ मधुरेश !!
अनु
पठनीय, सुगम और सुन्दर कविता।
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन विश्व रक्तदान दिवस - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteBeautiful poem. Loved reading it. :)
ReplyDeleteखूबसूरत भाव
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भावों से सजी शानदार पोस्ट |
ReplyDeleteइतना अच्छा लिखते हैं तो अपने पाठकों से प्रतीक्षा क्यों करवाते हैं ? आपकी सक्रियता सबों को अच्छी लगती है . आप भी जानते होंगे..
ReplyDeleteप्रवाहमय सुन्दर भावपूर्ण रचना ...
ReplyDeletebahut acchhi bhav pravaahy rachna.
ReplyDeleteसचमुच आप बहुत ही सुन्दर लिखते हैं आपके शब्द मन में कही गहरे असर करते हैं,
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा है अपने मधुरेश जी
ReplyDeleteआपकी लेखनी में कुछ खास है