Friday, June 13, 2014

क्षुद्रता


मन मेरा जुगनू की भांति
बुझता औ' जलता रहता है।
इक तुच्छ क्षुद्र सा भाव लिए
चहु ओर भटकता रहता है।

तुम श्रोत हो अविरल रश्मि के,
तुम्हे पाने से क्यों डरता है!
क्यों अपनी ही मर्यादा को
साकार समझता रहता है!

कितना ही तुच्छ हो कोई भी,
इक अहम खटकता रहता है।
बंधकर ख़ुद की सीमाओं में,
ख़ुद से ही लड़ता रहता है।

तुम नेह-प्रेम के सागर हो, 
ये खड़ा किनारे रहता है।
डूबा तो दम भर जाएगा,
ये सोच डुबकी से डरता है

तुम स्वयं सत्य हो, स्वयं चित,
आनंद तुम्ही में रहता है।
फ़िर भी जग की पीड़ाओं को
अविराम ये सहता रहता है।

तुम्हे पाने को, मिल जाने को
ये सदा तरसता रहता है।
औ' बुझते, जलते अंतस की
उत्कंठा प्रज्ज्वल करता है!



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14 comments:

  1. मन की दुनिया ही कुछ ऐसी है मधुरेश भाई. अपने मनोभावों को सही शब्द दिए हैं आपने.

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  2. अति सुन्दर..... मन के प्रवाहमयी भाव

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  3. तुम स्वयं सत्य हो, स्वयं चित,
    आनंद तुम्ही में रहता है।
    फ़िर भी जग की पीड़ाओं को
    अविराम ये सहता रहता है।
    .बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति !!

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  4. बहुत सुन्दर भाव.....
    ढेरों दुआएँ मधुरेश !!

    अनु

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  5. पठनीय, सुगम और सुन्‍दर कविता।

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  6. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन विश्व रक्तदान दिवस - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  7. Beautiful poem. Loved reading it. :)

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  8. खूबसूरत भाव

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  9. बहुत सुन्दर भावों से सजी शानदार पोस्ट |

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  10. इतना अच्छा लिखते हैं तो अपने पाठकों से प्रतीक्षा क्यों करवाते हैं ? आपकी सक्रियता सबों को अच्छी लगती है . आप भी जानते होंगे..

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  11. प्रवाहमय सुन्दर भावपूर्ण रचना ...

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  12. सचमुच आप बहुत ही सुन्दर लिखते हैं आपके शब्द मन में कही गहरे असर करते हैं,

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  13. बहुत अच्छा लिखा है अपने मधुरेश जी
    आपकी लेखनी में कुछ खास है

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