मन, तूने क्या पाया था?
नियति नहीं खेलती
मृग-तृष्णा का खेल.
नित्य यहाँ होता है
विरह और मेल.
फिर भ्रमितों की भांति
तू क्यूँ भरमाया था?
मन, तूने क्या पाया था?
अज्ञान का तिमिर भी
है समय का बंधक.
मंथन के प्रकाश में
हो जाता है पृथक.
व्यर्थ की मादकता में
तू क्यूँ डगमगाया था?
मन, तूने क्या पाया था?
त्रिवेणी सा नहीं होता
हर घाट यहाँ पर.
श्वेत-श्यामला जहाँ
मिल जाएँ उमड़ कर.
बहती धारा का क्षोभ
तूने क्यूँ मनाया था?
मन, तूने क्या पाया था?
सत्कर्मों का हर साधी,
आराध्य नहीं होता है.
और विनीत है वो सदैव
बाध्य नहीं होता है.
जीवन के उपवन में क्या
पारिजात खिल आया था?
मन, तूने क्या पाया था?
Picture Courtesy: http://vwoopvwoop.wordpress.com/2011/12/01/respecting-other-peoples-grief/
राजा, मंत्री, चोर, सिपाही, न्याय खेल में न्यारा होता,
ReplyDeleteकिस्सों के बुझौवल में कितना सत्य शुद्ध बंटवारा होता,
अब तो पुस्तक से अनुसंशित, विधिक न्याय अभियुक्त प्रसंशित,
दांव पेंच में सहस गंवाते, खोटी कौड़ी पाने को !!४॥ ....
bahut sunder likha hai, badhaai.
बहती धारा का क्षोभ
ReplyDeleteतूने क्यूँ मनाया था?
मन, तूने क्या पाया था?
वाह!
ReplyDeleteदिनांक 23/12/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है .
धन्यवाद!
नियति नहीं खेलती
ReplyDeleteमृग-तृष्णा का खेल.
नित्य यहाँ होता है
विरह और मेल.
फिर भ्रमितों की भांति
तू क्यूँ भरमाया था?
मन, तूने क्या पाया था?
Bahut khoob...bahut sundar
यशवंत भाई की हलचल यहाँ खींच लायी. ऐसे अच्छे भाव गहन आतंरिक अन्वेषण से आ पाते हैं और फिर आपने इसे इतने सुन्दर शब्दों में पिरोकर बिलकुल अविस्मरणीय बना दिया. इस सुन्दर कृति की बधाई मधुरेश भाई.
ReplyDeleteनिहार
बहुत सुन्दर मधुरेश्जी ....बहुत ही सुन्दर ...!
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