Wednesday, November 27, 2013

यात्रा


इच्छाओं का बहाव
विपरीत, प्रतिकूल।
जीवन की तलाश में 
मृत्यु का सा शूल।
दुर्गम जटिल पथ 
सदा सम्बलदायक।
परा-शक्ति पर करती
अंतस को उन्मूल।
जो गिरता सो उठता,
उठा हुआ गिर जाता, 
जो भूला सो सीखा,
जो सीखा करता भूल।
ख़ाक छान ही बना सिकंदर,
और बनके फांके धूल!

Picture Courtesy: Illusion of depth by Ariel Freeman http://arielfreeman.blogspot.com/

Tuesday, September 10, 2013

संशय


एक वृत्त बाहर,
एक वृत्त भीतर
सिकुड़ती त्रिज्याएँ,
घुलती मिथ्याएं
सघन संकुचन,
अंतस क्रंदन
उच्छावास-निश्वास मे
उलझा हुआ प्राण,
निर्वात को कहे क्या-
जीवन या मृत्यु?

जो ये सिकुड़न घोल दे
भीतर का वृत्त, 
तो कर्म के बंधन में
फिर से आवृत्त
एक जीवन फिर ढूँढूँगा
या फिर टूट जाय अगर 
बाहर का वृत्त,
तो हो जाऊं अन्वृत्त,
अनाकार, निर्विचार
जीवन से परे-
या मृत्यु में घुल जाऊंगा?
 
 
Picture Courtesy: http://pressingpause.com/2012/03/19/extra-circular-activities/

Friday, June 28, 2013

उठो अभिमन्यु ... से प्रेरित होकर

जेन्नी आंटी की  ये रचना पढ़ी (http://lamhon-ka-safar.blogspot.com/2013/06/410.html). मन में कुछ दिनों से कई सारे प्रश्नों का घेराव था- उन पंक्तियों ने बहुत संबल दिया।
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बस लड़ना भर सीखा मैंने
ना सीखी पलटवार की युक्ति!
पर जानूं और समझूं अब मैं,
नव-युग में अनुबंध की सूक्ति!

नहीं चाहता अबकी मिटना,
सह लूँगा व्रण-शूल-वेदना,
कर सीमित अपनी संवेदना,
वज्र-प्रबल बन मुझको लड़ना। 

आशाओं का दीप कहाँ
मरने-मिटने में जलता है,
ये तो केवल वीर मनुज के
उठकर लड़ने में जलता है। 

बाहर कुपित, कलुषित, कुंठित
है शक्तिहीन, निज-सीमित 'मैं',
पर ओज तेज प्रताप प्रबल
भीतर में एक असीमित 'मैं'। 

मन में ठानूं कि भेद सकूं-
हो चक्रव्यूह जितना भी जटिल।
और भेद लड़ूं, डटकर निकलूँ 
हो चाहे शत्रु कितना ही कुटिल। 

है युद्ध बदला, बदली नीति,
मगर न धर्म हुआ अवसादित,
करे कपट कितना भी कोई,
मैं लडूँ, तो लड़ूं बस बन मर्यादित।

और हाँ माँ वचन तुमको देता हूँ,
हर चक्रव्यूह भेदता जाऊंगा मैं,
बन खुद तलवार और खुद ही ढाल,
अब जीत ही वापस आऊंगा मैं।

~ जेन्नी आंटी की रचना 'उठो अभिमन्यु ...' पर आधारित और ये पोस्ट उन्हें ही सादर समर्पित है।


Saturday, April 13, 2013

लाइफ का हैंग-ओवर



जीवन का मदिरालय प्यारा,
भांति-भांति से भरता प्याला,
रंग हो चाहे जो हाले का,
नशा सभी ने जम के पाला। 

ज्यों ही एक नशे की सरिता
करे पार, हो जाए किनारा,
त्यों ही दूजी सरिता आकर
मिल जाए, बह जाए किनारा।

हर पग रुकता, थमता-झुकता,
फिर भी आगे बढ़ता रहता,
कौन नशा जीवन से बढ़कर-
डगमग में भी स्वयं संभलता!

हर निशा में एक मधु है,
हर तम लाती एक नशा है,
हो अधीर फिर भी है पीता,
भूले स्मृति-उसकी मंशा है।

लेकिन भूल कहाँ पाता है!
स्मृतियाँ फिर भी आती हैं। 
और नशे में नित-नित नव-नव
श्रृंखलाएं बनती जाती हैं।

मगर अंत में एक प्रकाश फिर 
अंतस उज्जवल कर जाता है,
बड़े जतन से जाते जाते
ही लाइफ का हैंग-ओवर जाता है!

Picture Courtesy: Priyadarshi Ranjan

Thursday, March 28, 2013

कौड़ियों के दाम भी न बिका


पैसे की तंगी ने
मजबूर किया मुझे
खुद को बेच डालने को।
तो निकल पड़ा मैं भी
इस बाज़ार में
अपना मोल लगाने को।
खुद की खूबियाँ गिनी,
खुद की खामियां गिनी,
भई
नेकी है, ईमान है,
उसूलों वाला इंसान है,
सोचा,
दाम तो  अच्छा ही लगेगा,
मगर बाज़ार की डिमांड
तो कुछ और ही थी,
मक्कारी, जालसाजी, दिखावा
येही गुण बिक रहे थे,
दिन भर कड़ी धूप में
बोली लगाता रहा अपनी,
और शाम को मायूस होकर
घर आ गया मैं,
अफ़सोस,
कि कौड़ियों के दाम भी
न बिक पाया मैं!


Picture Courtesy: http://sangisathi.blogspot.com/2011_11_01_archive.html

Thursday, March 21, 2013

मकां आसमां है तेरा


ज़मीं पर है तू मगर मकां आसमां है तेरा,
इन पैरों को पर बनने की ख्वाहिश तो दे ज़रा।

ये हकीक़त जो है, सपनों से सजा ही तो है,
नींद आँखों से हटा, सपनों का दीदार तो करा।

रुख़ हवाओं का भी बदलता है इक दौर के बाद,
भरके दम उनको इस सीने से गुज़रने तो दे ज़रा।

कोई रोके, कोई टोके, क्या ही परवाह हो किसी की,
तुझे जिसकी भी हो परवाह, कदम उस ओर तू बढ़ा।

कहीं थकना, कहीं गिरना, फिर संभलना है मधुर,
राह की राग है अनोखी, बस हो मन सुर से भरा।


Picture Courtesy: http://www.guernik.com/en/ilustracion

Wednesday, February 27, 2013

अब रात कहाँ आती है यहाँ!



इक दौर मुक़म्मल होता था
सच-झूठ का, जीत-हार का,
इक दौर था जीने-मरने का,
इक दौर था नफरत-प्यार का.
अब तो जीते जो हारा है,
सच से अब झूठ ही प्यारा है,
कि कई नावों में पैर यहाँ,
ढूंढे अब कौन किनारा है!
कोई बूझ के भी अनबुझ सा है,
कि फेक है क्या सचमुच सा है,
होते थे कभी दिन-रात यहाँ,
अब तम-प्रकाश का फर्क कहाँ?
दिन के घनघोर उजाले में
अंतस में तम घर करता है,
अब रात कहाँ आती है यहाँ,
सबकुछ बेदार चमकता है!

Saturday, February 16, 2013

मन माटी रे!




सुख की वृष्टि, दुःख का सूखा,
कभी तुष्ट, कभी प्यासा-भूखा,
वन हैं, तृण है, नग है, खोह है,
विस्तृत इसकी चौपाटी रे!
मन माटी रे! 

नेह नीर से सन सन जाए,
कच्चे में आकार बनाए,
और फिर उसको खूब तपाए,
ये कुम्हार की बाटी रे!
मन माटी रे! 

मेड़ बना चहु ओर जो बांधे,
फिर क्या कलुषित लहरें फांदे!
तुष्ट ह्रदय सम शीत उष्ण जो,
सुफल तरुवर उस घाटी रे!
मन माटी रे! 

जो बहाव को बाँध न पाए,
या कच्चे में तप ना पाए,
और लहरों में घुलता जाए,
खुद की नियति फिर काटी रे!
मन माटी रे!

Tuesday, January 22, 2013

उठ के हुंकार पुरजोर लगा

'नेताजी' सुभाषचंद्र बोस आज अगर होते, तो फिर से उन्हें एक 'आजाद हिन्द फ़ौज' बनानी पड़ती, वो भी अपने ही हिन्दुस्तानियों के खिलाफ लड़ने के लिए।   एक गीत उनकी प्रेरणा से:




क्यों कलरव का है ग्रास बना?
क्यों शिथिल आत्म-विश्वास बना?
क्यों नियति का है दास बना?
उठ के हुंकार पुरजोर लगा।

क्यों क्षुब्ध हुआ, संवेदनहीन?
क्यों बना समाज चरित्रविहीन?
तप-ताप बढ़ा, हो नष्ट मलिन,
उठ के हुंकार पुरजोर लगा।

तज क्लीय तू पौरुष मन में ठान,
कर वध जो करे स्त्री अपमान,
हो इस समाज का नवर्निर्माण,
उठ के हुंकार पुरजोर लगा।

'जय हिन्द'

Picture Courtesy: http://www.flickr.com/photos/humayunnapeerzaada/6480943555/

राष्ट्र हित मे आप भी जुड़िये इस मुहिम से ... 

http://www.change.org/petitions/set-up-a-multi-disciplinary-inquiry-to-crack-bhagwanji-netaji-mystery#share

Sunday, January 13, 2013

तुम नेह सींच सींच लेना



जो नयन तुम्हारे थक-थक जाएं,
और निंदिया हौले-हौले आए,
पलकों के पीछे पलते स्वप्न हों, 
तो न आँखें मींच मींच लेना,
तुम नेह सींच सींच लेना। 

जिनमें मधुर सरिता हो बहती,
स्नेहिल स्वर्ण कणिका हो रहती,  
उन स्वप्नों को लेना तुम थाम,  
और बांहों में भींच भींच लेना, 
तुम नेह सींच सींच लेना। 

जब होते स्वप्न हो विदा विदा,
मत होना उनसे जुदा जुदा,
तुम निद्रा-पटल से बाहर आकर 
उन्हें साकार खींच खींच लेना, 
तुम नेह सींच सींच लेना।

Dreams are inner expressions,
Dreams are the life's inspirations,
Dreams are where the reality is seeded
Dreams are where the love sprouts
Dream love, dream cheers,
Dream for self, dream for peers,
Dream and dream, until you realize
Dream and never let your dream die.


Picture Courtesy: http://www.hindi2tech.com/2010/09/blog-post_17.html

Saturday, January 5, 2013

आज़ादी के मायने

Dedicated to 'the braveheart'
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आज़ादी के मायने 

खुद ही सारे जिस्म को 
ज़ंजीरों से बाँध लिया, 
और एक अँधेरी कोठरी में
जिंदा दफ़न कर आई।
सोचा एकांत है वहां,
कोई न पहुँचेगा मुझतक,
और कोई न होगा वहाँ 
मुझे प्रताड़ित करनेवाला,
न किसी अन्याय के विरुद्ध
गुहार लगानी होगी मुझे,
और न चाहिए होगा मुझे 
कोई तीमारदारी करनेवाला।
झाँक के उस कोठरी में
यूँही देखा एक बार मैंने,
एक जिस्म थी खोखली सी,
और मैं आज़ाद, बाहर उसके।
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Picture Courtesy: Pencil Kings, Art by Aditya Ikranagera