पैसे की तंगी ने
मजबूर किया मुझे
खुद को बेच डालने को।
तो निकल पड़ा मैं भी
इस बाज़ार में
अपना मोल लगाने को।
खुद की खूबियाँ गिनी,
खुद की खामियां गिनी,
भई
नेकी है, ईमान है,
उसूलों वाला इंसान है,
सोचा,
दाम तो अच्छा ही लगेगा,
मगर बाज़ार की डिमांड
तो कुछ और ही थी,
मक्कारी, जालसाजी, दिखावा
येही गुण बिक रहे थे,
दिन भर कड़ी धूप में
बोली लगाता रहा अपनी,
और शाम को मायूस होकर
घर आ गया मैं,
अफ़सोस,
कि कौड़ियों के दाम भी
न बिक पाया मैं!
Picture Courtesy: http://sangisathi.blogspot.com/2011_11_01_archive.html
ह्रदय खखोलती ....बहुत सुन्दर रचना ....!!!!!!
ReplyDeleteसुन्दर...!!!
ReplyDeleteसच आजकल नेकी और इमान का कोई मोल नहीं है..
ReplyDeleteयथार्थ कहती प्रभावशाली रचना...
बहुत गहरे शब्द मधुरेश भाई. समय तो दिखावे का ही है. शायद हमेशा ही रहा है. पर सच तो यही है कि दिखे और बिके जो भी, टिकता तो वही है जो किरदार आपकी कविता में है :) इन पक्तियों को पढ़ कर अचानक से ग़ालिब का शेर याद आ रहा है मुझे -
ReplyDeleteसुरमा-ऐ-मुफ्त नज़र हूँ, मिरी कीमत यह है
की रहे चश्म-ऐ-खरीदार पर एहसान मेरा
बहुत ही गहरा शेर है यह (शब्दार्थ से अलग). सुन्दर रचना की पुनः बधाई.
ReplyDeleteआपकी रचना वास्तविक परिस्थिति बयां करती बढ़िया कविता
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तुम्हारा मोल बाज़ार क्या जाने मधुरेश.....
ReplyDeleteसच्चे जौहरी यूँ बाज़ारों में नहीं बैठते.......
बेहद सशक्त रचना
सस्नेह
अनु
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ReplyDeleteहीरे का मोल सिर्फ जौहरी ही बता सकते है,, सुंदर रचना,,,,,,
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लाजवाब!
ReplyDeleteसादर
बहुत सुन्दर रचना ...
ReplyDeleteबहुत ही मार्मिक प्रस्तुतीकरण,आभार.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर....होली की हार्दिक शुभकामनाएं ।।
ReplyDeleteपधारें कैसे खेलूं तुम बिन होली पिया...
ईमानदारी,सत्य,सौन्दर्य,ईश्वर के प्रति निष्ठा ..... यह न बिकाऊ है,न कोई खरीद सकता है
ReplyDeleteआज का समय यही है.मक्कारी का ही बोल बाला है..बहुत सुन्दर
ReplyDeleteसच कहा है ... आज के समय अनुसार बनाना होगा खुद को .. फिर देखना बेचने की भी जरूरत नहीं पड़ेगी ...
ReplyDeleteनेकी ईमान का मान कहाँ आज...? कुछ अलग तरह की रचना
ReplyDeleteAaj ki sachhayi...bahut khub..
ReplyDeleteसाहूकारों की दुनिया में कुछ तो बचा है जो बेमोल होकर भी अनमोल है .
ReplyDeleteमक्कारी, जालसाजी, दिखावा
ReplyDeleteयेही गुण बिक रहे थे,
sahi bat .........bahut gahree soch....
बेहतरीन और लाजवाब.....हैट्स ऑफ इसके लिए।
ReplyDeleteअफ़सोस,
ReplyDeleteकि कौड़ियों के दाम भी
न बिक पाया मैं!
कोई पारखी न था वहाँ इसलिए क्या जानता वो नेकी औ' ईमान की कीमत
बेहद सशक्त भाव लिए उत्कृष्ट रचना
बहुत अच्छी रचना. एक सोच ये भी - ईमानदारी की कीमत कौड़ी भी नहीं क्योंकि वह बिकाऊ नहीं. बहुत बढ़िया, बधाई.
ReplyDeleteन बिकने वाली चीजें भी वक्त की चोट से बाजार में पहुँच जाती हैं ....बेहतरीन !
ReplyDeleteबढ़िया अभिव्यक्ति ...
ReplyDeleteशुभकामनायें इस लेखनी को !
bika isliye nahi tu..kyunki imaan bika nahi karta...jaalsaazi makkari ka kya hai...khareeddar utne hi baithe hain unke jitne ki tann bechti vaishyaon ke...mann kahaan koi kabhi bech khareed paya hai...
ReplyDeleteEmandar rachna...:)
ReplyDeleteEmandar rachna...:)
ReplyDeleteइन्सान के गुण तो अनमोल हैं...कभी बिक ही नहीं सकते... बरहाल बहुत अच्छी प्रस्तुति..
ReplyDeleteअनमोल की कीमत कौन लगा पाया है
ReplyDeleteसशक्त रचना
हार्दिक शुभकामनायें