Thursday, March 28, 2013

कौड़ियों के दाम भी न बिका


पैसे की तंगी ने
मजबूर किया मुझे
खुद को बेच डालने को।
तो निकल पड़ा मैं भी
इस बाज़ार में
अपना मोल लगाने को।
खुद की खूबियाँ गिनी,
खुद की खामियां गिनी,
भई
नेकी है, ईमान है,
उसूलों वाला इंसान है,
सोचा,
दाम तो  अच्छा ही लगेगा,
मगर बाज़ार की डिमांड
तो कुछ और ही थी,
मक्कारी, जालसाजी, दिखावा
येही गुण बिक रहे थे,
दिन भर कड़ी धूप में
बोली लगाता रहा अपनी,
और शाम को मायूस होकर
घर आ गया मैं,
अफ़सोस,
कि कौड़ियों के दाम भी
न बिक पाया मैं!


Picture Courtesy: http://sangisathi.blogspot.com/2011_11_01_archive.html

29 comments:

  1. ह्रदय खखोलती ....बहुत सुन्दर रचना ....!!!!!!

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  2. सच आजकल नेकी और इमान का कोई मोल नहीं है..
    यथार्थ कहती प्रभावशाली रचना...

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  3. बहुत गहरे शब्द मधुरेश भाई. समय तो दिखावे का ही है. शायद हमेशा ही रहा है. पर सच तो यही है कि दिखे और बिके जो भी, टिकता तो वही है जो किरदार आपकी कविता में है :) इन पक्तियों को पढ़ कर अचानक से ग़ालिब का शेर याद आ रहा है मुझे -

    सुरमा-ऐ-मुफ्त नज़र हूँ, मिरी कीमत यह है
    की रहे चश्म-ऐ-खरीदार पर एहसान मेरा

    बहुत ही गहरा शेर है यह (शब्दार्थ से अलग). सुन्दर रचना की पुनः बधाई.

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  4. आपकी रचना वास्तविक परिस्थिति बयां करती बढ़िया कविता
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  5. तुम्हारा मोल बाज़ार क्या जाने मधुरेश.....
    सच्चे जौहरी यूँ बाज़ारों में नहीं बैठते.......

    बेहद सशक्त रचना
    सस्नेह
    अनु

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  6. हीरे का मोल सिर्फ जौहरी ही बता सकते है,, सुंदर रचना,,,,,,

    RECENT POST: होली की हुडदंग ( भाग -२ )

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  7. बहुत सुन्दर रचना ...

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  8. बहुत ही मार्मिक प्रस्तुतीकरण,आभार.

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  9. बहुत सुन्दर....होली की हार्दिक शुभकामनाएं ।।
    पधारें कैसे खेलूं तुम बिन होली पिया...

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  10. ईमानदारी,सत्य,सौन्दर्य,ईश्वर के प्रति निष्ठा ..... यह न बिकाऊ है,न कोई खरीद सकता है

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  11. आज का समय यही है.मक्कारी का ही बोल बाला है..बहुत सुन्दर

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  12. सच कहा है ... आज के समय अनुसार बनाना होगा खुद को .. फिर देखना बेचने की भी जरूरत नहीं पड़ेगी ...

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  13. नेकी ईमान का मान कहाँ आज...? कुछ अलग तरह की रचना

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  14. साहूकारों की दुनिया में कुछ तो बचा है जो बेमोल होकर भी अनमोल है .

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  15. मक्कारी, जालसाजी, दिखावा
    येही गुण बिक रहे थे,
    sahi bat .........bahut gahree soch....

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  16. बेहतरीन और लाजवाब.....हैट्स ऑफ इसके लिए।

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  17. अफ़सोस,
    कि कौड़ियों के दाम भी
    न बिक पाया मैं!
    कोई पारखी न था वहाँ इसलिए क्‍या जानता वो नेकी औ' ईमान की कीमत

    बेहद सशक्‍त भाव लिए उत्‍कृष्‍ट रचना

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  18. बहुत अच्छी रचना. एक सोच ये भी - ईमानदारी की कीमत कौड़ी भी नहीं क्योंकि वह बिकाऊ नहीं. बहुत बढ़िया, बधाई.

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  19. न बिकने वाली चीजें भी वक्त की चोट से बाजार में पहुँच जाती हैं ....बेहतरीन !

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  20. बढ़िया अभिव्यक्ति ...
    शुभकामनायें इस लेखनी को !

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  21. bika isliye nahi tu..kyunki imaan bika nahi karta...jaalsaazi makkari ka kya hai...khareeddar utne hi baithe hain unke jitne ki tann bechti vaishyaon ke...mann kahaan koi kabhi bech khareed paya hai...

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  22. इन्सान के गुण तो अनमोल हैं...कभी बिक ही नहीं सकते... बरहाल बहुत अच्छी प्रस्तुति..

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  23. अनमोल की कीमत कौन लगा पाया है
    सशक्त रचना
    हार्दिक शुभकामनायें

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