Tuesday, January 24, 2012

जिजीविषा

 

विवाद, विषाद, उन्मत्त उन्माद,
अंतर था तम का अविरत प्रामाद.
अब है स्थिर, शांत, गंभीर,
न कोई रक्ति, न कोई वाद.

अंतरमन ने पूछा मुझसे,
अनुनय किससे, विमर्श कहाँ?
इस विविध राग के गान में,
उत्सर्ग कहाँ, उत्कर्ष कहाँ?

अब छोड़-छाड़  ये सोच विचार,
मन उड़ जा अब, कर जा तू पार,
चल दूर कहीं हैं नीरव नाद,
आनंद अविरत, प्रशांति अपार.

Such a chaos life has been!
O! the worldly desires,
the cause of suffering,
you'll fade away now.
Ah! I feel the tranquility,
and peace from within,
without any attachment
without any reasoning!

No dedication or devotion
or any spiritual elevation
is possible in the chaos.
O! my inner conscience,
take me away from here
to a far distant place,
in the sound of silence,
where bliss flows incessantly!

उन्मत्त उन्माद = severe madness/ restlessness
रक्ति = attachment
अनुनय= intercession, request
विमर्श= to take or consider other's opinion
उत्सर्ग=  dedication
उत्कर्ष= progress, elevation
नीरव नाद = the sound of silence
अविरत = incessant

Picture Courtesy: http://laist.com/2009/02/13/extra_extra_465.php

Sunday, January 22, 2012

सांवली



सांवली
हाँ, सांवली है वो!
और उसका रूप भी तो
इसी सांवलेपन से निखरता है!
उसका सांवलापन ही उसमे
कनक-सी आभा बिखेरता है!
उसके मुख-विन्द को
अनुपम-सा ओज देता है!
उसके होठो की मुस्कान को
माधुर्य-सिक्त कर देता है!
अगर वो गोरी होती,
तो ये बात होती ही नहीं!
इसीलिए तो सांवली है,
या फिर वो होती ही नहीं!

Wednesday, January 18, 2012

हदों तक


कभी हीरे-सा चमक उठे,
कभी धुंध में खोये रहे,
नींदों में जागते रहे,
उजालों में सोये रहे!
जब कभी मूक थे,
तो सुनते भी न थे,
अब आवाज़ मिली,
तो शोर मचाते हो!
क्यूँ तमाम बातों को 
हमेशा ही 
हदों तक खींच लाते हो!

Monday, January 16, 2012

योर हिंदी वाज़ कूल: A generation that was!


क्या आपको लगता है,
यूँही निकल आते हैं
किसी में हिंदी के पर?
हैरत न होगा जो कहूँ
कि हिंदी का सागर है
हमारा प्यारा घर!

बड़े ही प्रेम से पुत्र-पुत्र कहकर
पुकारती हैं मुझे,
मेरी ही माताश्री!
और मेरी नटखट शरारती बहने भी
कहती हैं मुझे
प्यारे 'भ्राताश्री'!

त्रेता औ' द्वापर की कहानियां
दूरदर्शन से भले ही बीत हो गयीं,
रामायण औ' महाभारत की परन्तु
हमारे घर में सदा की रीत हो गयी!

नानाजी को नमस्कार करते ही
उनके मुखसे 'चिरंजीवी भव:'
के शब्द निकलते थे!
और भीष्म ने क्या दी होगी
जितनी शिक्षा हमारे पितामह
स्वयं ही दिया करते थे!

पिताश्री स्वयं ही
काव्य के महासागर हैं,
और मेरे अनुज भी
शेर-ओ-शायरी में
उदीयमान तारावर हैं!


लोग कहते हैं तुम्हारी हिंदी ही
भला क्या कोई कम है !
सीधे-सीधे क्यूँ नहीं कहते कि
कमबख्त खानदानी प्रॉब्लम है!

अब कहिये इतने शब्दों का
बोझ मैं कब तक ढ़ोऊँ?
क्यूँ ना अपनी रचनाओं से
हिंदी के कुछ नए बीज बोऊँ?

इल्म है मुझे कि मेरी संतानें जब
बरसो बाद इन पौधों को देखेंगी,
पढ़ेंगी कितना पता नहीं, पर
'योर हिंदी वाज़ कूल' अवश्य कहेंगी!




Picture Courtesy: http://www.shutterstock.com/pic-47631088/stock-vector-cartoon-family-portrait.html

Sunday, January 15, 2012

एक नया आयाम देते हो!


एक सुनहरी धूप सरीखी,
अगणित त्रस-रेणु सी बिखरी,
तुम जीवन के कोहरे में भी
सु-सुषमा अविराम देते हो!
एक नया आयाम देते हो!


इक पग आगे, इक पग पीछे,
सीमित क्षणों को सींचे-खींचे,
शुष्क मरुस्थल-सी मिटटी में
मरुद्वीप का विराम देते हो!
एक नया आयाम देते हो!


हो घोर विषादों, प्रामादों में,
सृष्टि के अविरत अनुनादों में,
तुम ही अंतरमन के विहग को
चिर आनंद की उड़ान देते हो!
एक नया आयाम देते हो!


Like a gleam of sunshine in a cold foggy day,
like an oasis of water in a hot dry desert,
you always give a newer meaning to my life.
A meaning that I yearn for!
Despite all pains and sufferings of the worldly life,
you give my spirit a flight of bliss!
The bliss that I yearn for!

Saturday, January 7, 2012

कई बार ऐसा होता है!


कई बार,
मैं सोचता कुछ और हूँ!
कहता कुछ और ही हूँ!
और बताना
कुछ और ही चाहता हूँ!
लोग समझ नहीं पाते हैं!
बस विस्मित रह जाते हैं!
कई बार ऐसा होता है!

लेकिन ज़रूर कोई जादू है,
जो जान जाती हो तुम,
हमेशा ही
कि मैं क्या सोचता हूँ,
क्या ही कहता हूँ!
और क्या है वो
जो बताना चाहता हूँ!
आखिर ये कैसे होता है!
कई बार ऐसा होता है!

कई बार दो चीज़ें
जुडी हुई तो दिख जाती हैं,
मगर धागे नहीं दिखते!
वो महीन धागे,
जो जोड़ते हैं उन्हें!
फिर कैसे दिख पाता है तुम्हे
वो जो देखना होता है !
कई बार ऐसा होता है!