Friday, March 9, 2012

अभिलाषा




मैं तो बिखरे तिनकों-सा था,
तुमने मुझको ऐसा ढाला,
खग-सा उड़ता मैं चिदाकाश में
संग-संग उड़ती ये मधुशाला.

तुम सिन्धु सुधा की निर्झर
मैं था प्यासा, पीनेवाला
तुमसे ही कुछ बूँदें पाकर
तृप्त हुई मेरी मधुशाला.

इन साँसों में अब बसना तुम,
उर में हो तुमसे ही उजाला,
स्नेह-मदिरा अविरत ढरती हो,
अक्षुण्ण रहे ये मधुशाला.

Picture Courtesy: Vimal Kishore

17 comments:

  1. अक्षुण्ण रहे ये मधुशाला ....
    अद्धभुत अभ्व्यक्ति.... :)

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  2. स्नेह मदिरा अनवरत बहती रहे ... सुंदर भाव ...

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  3. स्नेह-मदिरा अविरत ढरती हो,
    अक्षुण्ण रहे ये मधुशाला.

    बहुत ही सुंदर.....अद्धभुत भाव

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  4. वाह .. ये मधुशाला आबाद रहे ...
    सुन्दर भाव ...

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  5. Wah bahut khoob,

    संग-संग उड़ती. तृप्त हुई. अक्षुण्ण रहे ये मधुशाला.

    Behtareen

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  6. अविरल धारा बहती रहे स्नेह मघु शाला की बहुत सुन्दर रचना ....होली की शुभ कामनाएं

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  7. बहुत सुन्दर...प्रवाहमयी रचना...

    शुभकामनाएँ.

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  8. sneh madira............waah bahut khoob

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  9. Bahut sundar. The way you wrote the last line of each paragraph is just superb!

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  10. wah bhaut hi sundar rachana ...sadar badhai apko.

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  11. वाह ..बहुत खूब ।

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  12. मधुशाला अक्षुण्ण रहे.. हमारी भी अभिलाषा है..

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