छंद यूँ काफी नहीं,
है रात भी बाकी अभी,
वक़्त भी ठहरा हुआ है,
मैं ज़रा-सा धीर धर लूँ.
मुझसे तुम ना अलग कहीं!
मैं पर हूँ तुम विहग वही.
इस सुनहरे आसमाँ में,
उड़के देखूं और विचर लूँ.
प्रेम नहीं आराधन हो तुम,
मीत मेरे मेरा मन हो तुम.
सुस्वपन-सा इन नयन में ,
मैं निशा का हीर धर लूँ.
है दिखाती मन की दृष्टि,
कि अधूरी मेरी सृष्टि,
थाम लो जो हाथ तुम तो,
अपनी सृष्टि पूर्ण कर लूँ.
मैं ज़रा-सा धीर धर लूँ.
बहुत ख़ूबसूरत, बधाई.
ReplyDeletewonderfully written!! i love the romanticism involved in your poems.. :):)
ReplyDeleteShukla ji, Surabhi, Dheerendra ji,
ReplyDeletesaraahanaa ke liye abhaar!!
बहुत ही सटीक भाव..बहुत सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteशुक्रिया ..इतना उम्दा लिखने के लिए !!
आगामी शुक्रवार को चर्चा-मंच पर आपका स्वागत है
ReplyDeleteआपकी यह रचना charchamanch.blogspot.com पर देखी जा सकेगी ।।
स्वागत करते पञ्च जन, मंच परम उल्लास ।
नए समर्थक जुट रहे, अथक अकथ अभ्यास ।
अथक अकथ अभ्यास, प्रेम के लिंक सँजोए ।
विकसित पुष्प पलाश, फाग का रंग भिगोए ।
शास्त्रीय सानिध्य, पाइए नव अभ्यागत ।
नियमित चर्चा होय, आपका स्वागत-स्वागत ।।
आप बहुत अच्छा लिखते हो!
ReplyDeleteखूबसूरत प्रस्तुति
ReplyDelete