Saturday, December 31, 2011

जली रोटियां


एक ग़रीब दंपत्ति थी,
सीमित उनकी संपत्ति थी.
कुछ कपड़े, इक झोपड़ था,
थोड़े अनाज, थोड़ा जड़ था.

एक जाड़े की बात थी,
होने चली अब रात थी.
रात्रि-भोज की तैयारी थी,
पत्नी उसमे व्यस्त भारी थी.

सब्जी बनकर तैयार थी,
बनानी बस रोटी चार थी.
परथन में आटा कम था,
औ' चूल्हे पे तवा गरम था.

बेलन की आपाधापी में
रोटी पहली कुछ जल-सी गयी.
अफ़सोस किया उसने इसपर
लेकिन आगे संभल सी गयी.

पहले तो ईश-भोग लगायी,
फिर खाने की थाल बिछायी.
परोसा पत्नी ने खाना,
था कीमती हर इक दाना.

धीरे से फिर पत्नी ने,
जली रोटी खुद ही रख ली,
अच्छी रोटी की थाल बढा,
पति के हाथों में धर दी.

पति इससे अनजान न था,
पर पत्नी को अनुमान न था.
'सुन री, ज़रा अन्दर तो जा,
पानी भरा गिलास तो ला'.

पत्नी ये सुनते ही झट से
पानी लाने अन्दर को गयी,
पति ने इतने में फट से
रोटी की अदल-बदल कर ली.

फिर से बैठे दोनों संग में,
रंगे हुए समर्पण-रंग में.
इक-दूजे को देखते रहतें, 
कभी खाते, कभी बातें करतें.

पत्नी को सहसा ध्यान आया,
अदला-बदली का ज्ञान आया,
'अजी, रोटी तुमने क्यूँ बदली,
क्यूँ जली हुई खुद ही खा ली?'

'क्यूँ री! बनती होशियार बड़ी,
क्या तुझको मुझसे प्यार नहीं!
जो कुछ ख़राब, तू खुद लेती,
जो अच्छा सो मुझको देती!'

'तू तो मेरी अर्धांगन है,
तेरा तन भी मेरा तन है,
जो कुछ हो बांटे-खायेंगे,
ख़ुशी से झूमे, गायेंगे.'

दुःख में भी जो समर्पण हो
तो कहाँ जीवन खलता है!
छोटी-छोटी कमियों में भी
प्रगाढ़ प्रेम पलता है!

Picture Courtesy: http://indianculture-blog.blogspot.com/

Thursday, December 29, 2011

मैं ज़रा-सा धीर धर लूँ



छंद यूँ काफी नहीं,
है रात भी बाकी अभी,
वक़्त भी ठहरा हुआ है,
मैं ज़रा-सा धीर धर लूँ.

मुझसे तुम ना अलग कहीं!
मैं पर हूँ तुम विहग वही.
इस सुनहरे आसमाँ में,
उड़के देखूं और विचर लूँ. 

प्रेम नहीं आराधन हो तुम,
मीत मेरे मेरा मन हो तुम.
सुस्वपन-सा इन नयन में ,
मैं निशा का हीर धर लूँ.

है दिखाती मन की दृष्टि,
कि अधूरी मेरी सृष्टि,
थाम लो जो हाथ तुम तो,
अपनी सृष्टि पूर्ण कर लूँ.

मैं ज़रा-सा धीर धर लूँ.



Sunday, December 18, 2011

मैं खुद से बातें करता हूँ!






कभी न्यारी-सी प्यारी बातें,
कभी विचारों से भरी बातें,
उर के भीतर एक द्वंद्व मैं
अनायास ही लड़ता हूँ!
मैं खुद से बातें करता हूँ!

खुद को ही दो टुकड़ों में कर
खुद ही कहता, खुद सुनता हूँ.
कोलाहल में सामंजस्य का
नव नित रूप मैं गढ़ता हूँ.
मैं खुद से बातें करता हूँ!

स्व-चिंतन ही आत्मबोध है,
अंतर-मनन सर्वोत्तम शोध है,
मन के गागर को मैं नित नित
गंगा-जमुना से भरता हूँ.
मैं खुद से बातें करता हूँ!


Picture Courtesy: Santanu Sinha

Thursday, December 8, 2011

स्पर्श




सहसा ही छू लेते हो मन को तुम,
और साँसें बस थमी रह जाती हैं.
आवाज़ धडकनों की इतनी तेज़
कि कानों तक गूँज जाती है.
दिल उमड़ता है ऐसे कि जैसे
सब कुछ न्योछावर कर दे!
कितनी विह्व्हलता आ जाती है!
प्रेम औ' समर्पण के समागम में
तृष्णा बस लेष रह जाती है.
और एक ही कुछ होता है,
थोड़ा तुम-सा, थोड़ा मुझ-सा,
पृथा बस घुल सी जाती है!

Picture Courtesy: http://artandperception.com/2008/03/natural-abstracts.html

Sunday, December 4, 2011

तुम मेरा हाल न पूछो ...



तुम मेरा हाल न पूछो, बड़ा कमाल-सा हूँ मैं,
ज़हर के घूँट पीकर भी, शरों में ढाल-सा हूँ मैं.

सिफर तक टूट करके भी, सफ़र है बरकरार मेरा,
कि इन ख़ामोश पलों में भी, बड़ा वाचाल-सा हूँ मैं.

अजब-सी राह ये ज़िन्दगी, सिला मुझको मिला ऐसा,
कि जो भी साज़ तुम छेड़ो, उसी में ताल-सा हूँ मैं.

ज़रुरत इस अँधेरे में पड़े,  बेशक बुला लेना
कि तूफाँ में भी जो जलता है वो मशाल-सा हूँ मैं.

जो जीना है तो जी भर के जियो, बनके ज़रा 'मधुर'
कि उल्फ़त में नहीं कहते कभी 'बेहाल-सा हूँ मैं'!

Picture Courtesy: http://virin.tumblr.com/post/6380054846/strength-of-a-man-abstract-nellie-vin-by-nellie