सहगामिनी हो जीवन-पथ की,
सहभागी एक-से स्वप्नों की,
हाँ, उसके सुरमयी स्वप्नों की
संचयिका बनना चाहता हूँ.
वो कहे तो मैं सजदे कर लूँ,
या खुद के घुटनों पे हो लूँ,
मगर जहाँ वो सिर रख सके,
वो कन्धा देना चाहता हूँ.
सिर झुका कर बातें कर लूँ,
नेह उसका पलकों पे धर लूँ,
पर उसे सदा मैं आसमान की
बुलंदियों पर देखना चाहता हूँ.
संचयिका बनना चाहता हूँ.
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