वो जो मुझमे था,
ख़ुद ही खोया पड़ा है!
शायद वो भी ख़ुद को,
कहीं और ढूंढ रहा है!
और तुम क्या तुम ही हो?
कल कुछ और ही थे,
आज कुछ और ही हो.
कल का पता,
ना तुम्हे है, ना हमें.
वक़्त के साथ सम्यक
ना तुम हो, ना हम हैं.
जब खूब पहचान थी तुम्हे,
तो आज भरोसा क्यूँ कम है!
तुम बदले, इसका तो नहीं,
हाँ मैं बदला, इसका ग़म है!
इसीलिए ढूंढ रहा हूँ ख़ुद को,
कि वक़्त फिर मुझे ना बदले.
मैं होऊं तो शाश्वत होऊं,
वरना जीवन निरर्थक है!