वक़्त के आईने में अपना ही चेहरा तब्दील हो जाता है.
और हम पीछे मुड़कर देखते हैं उन लम्हों को - इसी आईने में... तो वही प्यारा बचपन खिलखिलाता नज़र आता है.
अपनी आज की तस्वीर से अक्सर ये पूछा करते हैं -
'कहाँ है वो बचपन? क्या दूर कहीं है?? या यहीं कहीं है, छिपा हुआ-सा, अपने अन्दर ही!'
फूलों में बिखरे रंगों में,
या चंचल जल-तरंगों में,
यूँ धूप-छाँव में निखरा-सा,
जो नेह भरा, यही तो है!
वो बचपन की लड़ाई में,
या यौवन की अंगड़ाई में,
यूँ खोया, भूला, भटका-सा
जो ढूँढ रहा, यही तो है!
बरसों बचपन के दामन में,
जो गीत गुनगुनाए हैं हमने,
हवाओं के इन झोंकों में,
ये सरसराहट! यही तो है!...
...
हवाओं के इन झोंकों में,
ये सरसराहट! यही तो है!
खामोश लबों पे भीनी-सी
ये मुस्कराहट! यही तो है!
2nd para is amazing ...
ReplyDelete"wo bachpan ki ladaai me....."
Awesome !!! :))
हँस यूँ की गुलाबों सी खुशबु आये ,
ReplyDeleteआंसू भी शर्मिंदा हो तेरी आँख में आकर.
bahut hi umda aur pak peshkash-------
Kavita main bahut gaherai hai...
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