इक दौर मुक़म्मल होता था
सच-झूठ का, जीत-हार का,
इक दौर था जीने-मरने का,
इक दौर था नफरत-प्यार का.
अब तो जीते जो हारा है,
सच से अब झूठ ही प्यारा है,
कि कई नावों में पैर यहाँ,
ढूंढे अब कौन किनारा है!
कोई बूझ के भी अनबुझ सा है,
कि फेक है क्या सचमुच सा है,
होते थे कभी दिन-रात यहाँ,
अब तम-प्रकाश का फर्क कहाँ?
दिन के घनघोर उजाले में
अंतस में तम घर करता है,
अब रात कहाँ आती है यहाँ,
सबकुछ बेदार चमकता है!