दो नयना भरे-भरे से हैं
स्नेह से, आशाओं से...
जाने क्यूँ परे-परे से हैं
अनदेखी परिभाषाओं से...
मुख पे मद्धिम मुस्कान कहीं
इक स्वप्न कोई पुलकित करतीं...
कुछ डूबे से, कुछ उबरे से
मीठे ख़याल अंकित करतीं...
हाँ दूर कहीं उन स्वपनों में
नव-जीवन की आवृत्ति है...
जो था सुषुप्त, अब है जगा
मन नवल-रूप आकृति है...
सोचूं तो सबकुछ है मन में,
कितनी गहरी संतृप्ति है...
बस नेह भरा ही मन मेरा
प्रारब्ध है, स्मृति है...