वक़्त के आईने में अपना ही चेहरा तब्दील हो जाता है.
और हम पीछे मुड़कर देखते हैं उन लम्हों को - इसी आईने में... तो वही प्यारा बचपन खिलखिलाता नज़र आता है.
अपनी आज की तस्वीर से अक्सर ये पूछा करते हैं -
'कहाँ है वो बचपन? क्या दूर कहीं है?? या यहीं कहीं है, छिपा हुआ-सा, अपने अन्दर ही!'
फूलों में बिखरे रंगों में,
या चंचल जल-तरंगों में,
यूँ धूप-छाँव में निखरा-सा,
जो नेह भरा, यही तो है!
वो बचपन की लड़ाई में,
या यौवन की अंगड़ाई में,
यूँ खोया, भूला, भटका-सा
जो ढूँढ रहा, यही तो है!
बरसों बचपन के दामन में,
जो गीत गुनगुनाए हैं हमने,
हवाओं के इन झोंकों में,
ये सरसराहट! यही तो है!...
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हवाओं के इन झोंकों में,
ये सरसराहट! यही तो है!
खामोश लबों पे भीनी-सी
ये मुस्कराहट! यही तो है!