जितनी धरती झुलसी जाती,
वो उतना ही संचित करता है.
उसके त्यागे बूँद बूँद से,
अपनी सीमा विस्तृत करता है.
और फिर अपना ह्रदय बढाकर
अपनी छाँव बड़ा करता है.
फिर भी 'कितनी छाँव मिलेगी'
हर क्षण ये सोचा करता है.
बरबस फिर वो एक दिन यूँ
खुद ही में उमड़ पड़ता है.
टूट-टूट कर, गरज-बरस कर,
धरती को संतृप्त करता है.
क्या तोड़ अपनी सीमा वो,
बोलो कुछ ग़लत करता है?
आखिर बादल कब तक यूँ
धरती को छाँव देता!
Dedicated to my Dad
उसके त्यागे बूँद बूँद से,
ReplyDeleteअपनी सीमा विस्तृत करता है.
clouds... well defined!
loved this poem:)