Saturday, May 2, 2009

सप्तपर्णा से चार पत्ते


१)
जीवन असमंजस का प्याला,
तम-प्रकाश की मिश्रित हाला.
सबल विवेक, निर्बल विकार हों 
आशाएं मेरी मधुशाला!

२)
ओ छल-साकी मत पिला अब
इतना कि होऊं मतवाला.
सुध-बुध की है यहाँ चौकडी,
अंतर्मन है मधुशाला!

३)
नयना मेरे मधुघट हैं और
चिर उमंग चांदी सा प्याला.
गरिमा की हाला प्रबोधिनी,
स्वर्णलता सी मधुशाला!

४)
रुकते-रुकते चल पड़े मन,
ऐसी आशाओं की हाला.
और चलके रुक जाए जहाँ पर
वहीँ-वहीँ हो मधुशाला

14 comments:

  1. Bahut accha.. Wonderful composition...

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  2. संगीता स्वरुप जी, विवेचना एवं अनुशंषा के लिए धन्यवाद!

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  3. सुन्दर...
    मधुर मधुशाला...

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  4. बहुत सुन्दर ……

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  5. वहां बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ।

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  6. वाह बहुत खूब
    उम्दा

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  7. बहुत ही बढ़िया।

    अच्छा लगा आपके ब्लॉग पर।

    सादर

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  8. विद्या जी, वंदना जी, सदा जी, अंजू जी, यशवंत जी : बहुत धन्यवाद, ख़ुशी हुई कि आपको अच्छी लगी!!
    यशवंत जी: Disable कर दिया है मैंने अब :)

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  9. हलचल पर मिली आपकी यह कविता बहुत ही सुंदर लिखते हैं आप आपकी यह रचना पढ़कर बच्चन जी की मधुशाला याद आगी मुझको बहुत खूब

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  10. pat ek hi roop aanek ;aage badhte gana musafir aage badte gana

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  11. मधुरेश , आपने मुझे ही अपनी रचनाओं से पुन: मिलाया है . सच! मैं भी विस्मृति में थी. नि:संदेह प्रसन्नता हुई. वैसे भी रचना कलम से निकलने के बाद मेरी रहती भी नहीं है और पुन:पढ़कर मैं भी अर्थों को आत्मसात ही करती हूँ. आभार व्यक्त करूँ क्या? मेल करती पर ...

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  12. wow.. bahut a66e...waise to madhushala amar hai...lekin uski amaratva me halchal paida kiya madhushala ko isis trh jevet rkhne ke liye dhanyavad/... sri bachchan sir hamare adarsh me se ek kavi the...aj v ankhon me pani aati hai madhushala ke lines padh ke....dhanyavaad...bahut bahut khub likha hai apne...

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