मन मेरा जुगनू की भांति
बुझता औ' जलता रहता है।
इक तुच्छ क्षुद्र सा भाव लिए
चहु ओर भटकता रहता है।
तुम श्रोत हो अविरल रश्मि के,
तुम्हे पाने से क्यों डरता है!
क्यों अपनी ही मर्यादा को
साकार समझता रहता है!
कितना ही तुच्छ हो कोई भी,
इक अहम खटकता रहता है।
बंधकर ख़ुद की सीमाओं में,
ख़ुद से ही लड़ता रहता है।
तुम नेह-प्रेम के सागर हो,
ये खड़ा किनारे रहता है।
डूबा तो दम भर जाएगा,
ये सोच डुबकी से डरता है।
तुम स्वयं सत्य हो, स्वयं चित,
आनंद तुम्ही में रहता है।
फ़िर भी जग की पीड़ाओं को
अविराम ये सहता रहता है।
तुम्हे पाने को, मिल जाने को
ये सदा तरसता रहता है।
औ' बुझते, जलते अंतस की
उत्कंठा प्रज्ज्वल करता है!
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