मनुस्मृति ही क्यों, तुम
वेद-पुराण भी जला डालो,
धर्म, शास्त्र, नीतियों को
तुम हँसी में ही उड़ा डालो!
वैसे भी इन्हे समझ पाना,
तुम्हारे बस की बात नहीं,
'सत्य' भी क्या जलेगा कभी?-
तुम चाहे जितना जला डालो !
यह कुकृत्य भी नहीं ऐसा कि
सिर-कलम की बात भी होगी!
प्रखर होगा प्रहार से धर्म ही
तो बात किस आघात की होगी?
निश्चय ही हे 'बुद्धिजीवीयों',
तो बात किस आघात की होगी?
निश्चय ही हे 'बुद्धिजीवीयों',
यह काल है मंथन का अभी,
विष-अमृत सब ही अलग होंगे,
तुम चाहे जितना मिला डालो!