Thursday, March 10, 2016

हे बुद्धिजीवीयों



​मनुस्मृति ही क्यों, तुम 
वेद-पुराण भी जला डालो,
धर्म, शास्त्र, नीतियों को 
तुम हँसी में ही उड़ा डालो! 

वैसे भी इन्हे समझ पाना, 
तुम्हारे बस की बात नहीं,
'सत्य' भी क्या जलेगा कभी?-
तुम चाहे जितना जला डालो !

यह कुकृत्य भी नहीं ऐसा कि
सिर-कलम की बात भी होगी! 
प्रखर होगा प्रहार से धर्म ही
तो बात किस आघात की होगी?

निश्चय ही हे 'बुद्धिजीवीयों',
यह काल है मंथन का अभी,
विष-अमृत सब ही अलग होंगे,
तुम चाहे जितना मिला डालो!