Wednesday, September 22, 2010

बढ़ता रह निरंतर


तू प्रगति पथ पर,
बढ़ता रह निरंतर.


सरिता की भांति
पीछे छोड़ता चल
राह के चट्टान पत्थर,
बढ़ता रह निरंतर.


झील की भांति
सीमित रखा कर
अपनी इच्छाएं प्रबल,
बढ़ता रह निरंतर.


सागर की भांति
विशाल करता चल
अपना ह्रदय पटल,
बढ़ता रह निरंतर.
 
छात्र की भांति
सीढीयाँ चढ़ता चल
लौकिक से अलौकिक पर,
बढ़ता रह निरंतर.
 
Dedicated to my Hindi Teacher Shri B N Chaturvedi.When I wrote this poem in my 6th grade, my teacher Sh. B N  Chaturvedi encouraged me a lot towards writing. Posting this piece is a tribute to him.

Friday, September 17, 2010

फिर से मेघ घिर आये हैं



चांदी की सी चमचम इनमें
या फवें हों रुई की जैसे
खूब चले हैं बनठन कर और
गरज गरज इतराए हैं.
फिर से मेघ घिर आये हैं.

मन की सूखी धरा हमारी
व्याकुल तरस रही थी रस को.
देखो लेकर इन्द्र-कलश में
अमृत अविरत भर लायें हैं,
फिर से मेघ घिर आये हैं.

अंतर्मन की प्यास बुझेगी
कुंठा की सब झुलस हटेगी
तृप्त होंगे, मुस्कान खिलेगी,
सुख-संदेशा लायें हैं.
फिर से मेघ घिर आये हैं.

Dedicated to my college friends Arvind, Shishir, Sheetal, Nitin, Ajit and Rajesh