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Thursday, March 28, 2013

कौड़ियों के दाम भी न बिका


पैसे की तंगी ने
मजबूर किया मुझे
खुद को बेच डालने को।
तो निकल पड़ा मैं भी
इस बाज़ार में
अपना मोल लगाने को।
खुद की खूबियाँ गिनी,
खुद की खामियां गिनी,
भई
नेकी है, ईमान है,
उसूलों वाला इंसान है,
सोचा,
दाम तो  अच्छा ही लगेगा,
मगर बाज़ार की डिमांड
तो कुछ और ही थी,
मक्कारी, जालसाजी, दिखावा
येही गुण बिक रहे थे,
दिन भर कड़ी धूप में
बोली लगाता रहा अपनी,
और शाम को मायूस होकर
घर आ गया मैं,
अफ़सोस,
कि कौड़ियों के दाम भी
न बिक पाया मैं!


Picture Courtesy: http://sangisathi.blogspot.com/2011_11_01_archive.html

Monday, December 24, 2012

विनती



यह दीन दशा अब देख देश की,
रोती  प्याला, रोती हाला।
चहु ओर व्यथा है, औ' विषाद है,
थर-थर काँपे मन-साक़ी बाला।

कैसी मादकता छा गयी समाज में!
किसने ढारी यह कलुषित हाला!
निःशब्द खड़ी, नियति पे रोती,
बस शोक मनाती मधुशाला।

कुछ पुष्प ईश-अर्पण के तुम,
श्रद्धा से परे हटा देना,
विनती उस बाला की करना,
बनी रहे उसकी मधुशाला।


Dedicated to that brave girl who is still struggling for life in Safdarjung Hospital. 
May God give her immense strength to recover soon. Amen. 

Sunday, October 14, 2012

कुरुक्षेत्र


कल की बात है 
कुरुक्षेत्र -
रक्त-रंजित था
आज फिर से
रक्त-रंजित है.
वो रक्त
जिसका स्राव भी ततक्षण
वहशी पी जाते हैं.
मानवता अब प्रतिदिन
बे-आबरू होती है
और अब कृष्ण भी कोई नहीं है.
हो भी क्यों?
कृष्ण तो उनका था ही नहीं
कभी भी नहीं
क्योंकि आज का कृष्ण
देखता है
कौन आम है, कौन खास है
उसका एकाधिकार तो अब
खापों के पास है.

Inspired by: Saru Singhal's why-should-i-be-ashamed

Picture Courtesy: http://www.dipity.com/tickr/Flickr_epistemology/

Tuesday, May 1, 2012

निर्वाण दो !





तुम्हारा सानिध्य हो
संकीर्णता से परे.
इन अस्थिर नयनों के
व्याकुल तरंगों को
चिर विश्राम दो,
मन को निर्वाण दो !

सफ़ेद चादर मन,
स्याह काली व्याकुलता,
बरबस लगते दाग,
कैसी ये अस्थिरता!
धुल जाए प्रारब्ध
ऐसा वरदान दो !
मन को निर्वाण दो !

निस्वार्थ अभिलाषाएं,
निजता का परित्याग,
अविरत चिर प्रखर
तप का विधान दो !
मन को निर्वाण दो !
 
Picture Courtesy: Priyadarshi Ranjan


P.S. http://lifewillbedifferentfromnowon.blogspot.in/2012/05/bear-grylls-that-she-is-not.html ) जब लिख रहा था तब बहुत विचलित था मन, और बार-बार यही ख्याल आ रहा था कि बस, बहुत हुआ, अब सब कुछ शून्य हो जाए... ताकि ना सुख रहे, ना दुःख... और इन सब से ऊपर उठकर मैं अपना जीवन निस्वार्थ  सेवा में सार्थक कर सकूं. मानता हूँ, निर्वाण परमगति है, परन्तु ईश्वर से यह मांगने की इच्छा जताकर कम-से-कम अपनी स्वार्थ-परक भावनाओं में लिप्त मन को शांत कर सकता हूँ.

Saturday, February 11, 2012

कैसे कहूँ मैं


बेटे-बेटियां पढाई-लिखाई, नौकरी-पेशे के सिलसिले में दूर किसी शहर में रहने लगे हैं.
माँ-बाप ने पाला-पोसा, बड़ा किया, बच्चों को लायक बनाया- पर आज वो अकेले हो गए हैं.
और करें भी तो क्या करें- बच्चे दूर हैं, व्यस्त हैं, नाम रोशन कर रहे हैं माँ-बाप का,
इन भावनाओं के बीच ये जो अचानक सा अकेलापन आ गया है, उसे "कैसे कहूँ मैं?"


कैसे कहूँ मैं
कि आजकल बहुत उदास रहती हूँ
तू इतनी दूर जो चला गया है,
बस तेरे ख्यालों के पास रहती हूँ.
तेरी ही फ़िक्र में तो
सारा जीवन काटा है
तेरी सारी खुशियों को, ग़मों को
अब तक मैंने ही बांटा है.
तेरी हर हार में संबल के
पुष्प संजोय हैं मैंने,
और हर इक जीत पर
ख़ुशी के आंसू रोये हैं मैंने.
तेरे लिए ही तो अपने कर्म को
सदा तपस्या सम माना,
तू चमके चाँद सितारों सा
यही सपना बस मन में ठाना.
आज तू चमक रहा है
दूर कहीं आसमान में,
बिलकुल वैसे ही
जगमग चाँद सितारों सा,
और तेरी चमक से
रौशन-रौशन सा है
मेरा भी छोटा-सा जहां
मेरी तपस्या सफल रही
बस यही तसल्ली दिया करती हूँ,
कैसे कहूँ मैं
कि आजकल बहुत उदास रहती हूँ.

तू इतनी दूर जो चला गया है!


Picture Courtesy: Priyadarshi Ranjan

Dedicated to you Maa :) 

Friday, February 10, 2012

स्वास्थ्य-चेतना


बचपन देखो पीड़ा भरा-सा 
दुःख का और लाचारी का
ग़रीबों को बिना इलाज,
शिकार भूख, बीमारी का! 

क्या होगा वैभव विलास
जो पीड़ा उनकी बाँट न पायें,
पढ़-लिखके भी उनके लिए
कुछ अच्छा न कर पायें!

एक उद्देश्य यहाँ ये भी हो,
'आरोग्य' प्रसार हम कर पायें, 
तृण-तृण से भी कुछ विशेष 
भीड़ में हम सब कर जाएँ !

इसीलिए विनती है सबसे
स्वास्थ्य-चेतना हम फैलाएं
'प्रथम सुख निरोगी काया है'
गर्व से हम सब कह पायें!

"So, Stay healthy, save money on medicine and contribute it for the poor!"

Picture Courtesy: http://publichealth.msu.edu/pph/index.php/academic-programs/graduate-certificate/international

Saturday, May 28, 2011

बादल कब तक धरती को छाँव देगा?


जितनी धरती झुलसी जाती,
वो उतना ही संचित करता है.
उसके त्यागे बूँद बूँद से,
अपनी सीमा विस्तृत करता है.
और फिर अपना ह्रदय बढाकर
अपनी छाँव बड़ा करता है.
फिर भी 'कितनी छाँव मिलेगी'
हर क्षण ये सोचा करता है.

बरबस फिर वो एक दिन यूँ
खुद ही में उमड़ पड़ता है.
टूट-टूट कर, गरज-बरस कर,
धरती को संतृप्त करता है.
क्या तोड़ अपनी सीमा वो,
बोलो कुछ ग़लत करता है?

आखिर बादल कब तक यूँ
धरती को छाँव देता!
Dedicated to my Dad

Sunday, December 12, 2010

किसी की सिसकियों में खुद को तलाश लें


कितनी अनुपम ये सृष्टि है!
पर छोटी अपनी दृष्टि है. 

कहीं हैं भोर कहीं सांझ हैं,
कहीं अति कहीं अनावृष्टि है. 

कहीं कलकल बहता विलास है,
और कहीं बस बुझती आस है. 

किसका है सुख, किसकी विपदा?
कौन है आया रहने को सदा? 

क्यूँ न हम सत्कर्म साध ले. 
थोड़ी पीड़ा उनसे बाँट लें. 

आओ मिला धरती आकाश लें. 
किसी की सिसकियों में खुद को तलाश लें.
 

Dedicated to Dada Shankarsananada and Didi Arpana, who inspire me to come back into a life of value, a life to work for others who are deprived.


P.S.: The vedios Dada showed us during Singapore Jagruti on the situation of Haiti were quite moving.
AMURT and AMURTEL though are working ferrociously towards alleviating the multitudes of pains people are suffering from. If we can do something, we should just do it. http://amurthaiti.org/
  


Wednesday, October 27, 2010

सजल आँखें


सपनें जहाँ बसते थे,

अरमान जहाँ जगते थे,

बयां करती थी जो हर पल

दिल के उमंगों को,

वो आज यूँ ख़ामोश हैं

जैसे फूल हो खिज़ा के.

तुम्हारी सजल आँखें.

Picture Courtsey: http://www.paintingsilove.com/image/show/127127/sadness
 Dedicated to my Dad, from whom I inherit writing six liners.

Sunday, February 14, 2010

मन, तूने क्या पाया था?


मन, तूने क्या पाया था?

नियति नहीं खेलती
मृग-तृष्णा का खेल.
नित्य यहाँ होता है
विरह और मेल.
फिर भ्रमितों की भांति
तू क्यूँ भरमाया था?
मन, तूने क्या पाया था?

अज्ञान का तिमिर भी
है समय का बंधक.
मंथन के प्रकाश में
हो जाता है पृथक.
व्यर्थ की मादकता में
तू क्यूँ डगमगाया था?
मन, तूने क्या पाया था?


त्रिवेणी सा नहीं होता
हर घाट यहाँ पर.
श्वेत-श्यामला जहाँ
मिल जाएँ उमड़ कर.
बहती धारा का क्षोभ
तूने क्यूँ मनाया था?
मन, तूने क्या पाया था?

सत्कर्मों का हर साधी,
आराध्य नहीं होता है.
और विनीत है वो सदैव
बाध्य नहीं होता है.
जीवन के उपवन में क्या
पारिजात खिल आया था?
मन, तूने क्या पाया था?

Picture Courtesy: http://vwoopvwoop.wordpress.com/2011/12/01/respecting-other-peoples-grief/