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Friday, June 28, 2013

उठो अभिमन्यु ... से प्रेरित होकर

जेन्नी आंटी की  ये रचना पढ़ी (http://lamhon-ka-safar.blogspot.com/2013/06/410.html). मन में कुछ दिनों से कई सारे प्रश्नों का घेराव था- उन पंक्तियों ने बहुत संबल दिया।
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बस लड़ना भर सीखा मैंने
ना सीखी पलटवार की युक्ति!
पर जानूं और समझूं अब मैं,
नव-युग में अनुबंध की सूक्ति!

नहीं चाहता अबकी मिटना,
सह लूँगा व्रण-शूल-वेदना,
कर सीमित अपनी संवेदना,
वज्र-प्रबल बन मुझको लड़ना। 

आशाओं का दीप कहाँ
मरने-मिटने में जलता है,
ये तो केवल वीर मनुज के
उठकर लड़ने में जलता है। 

बाहर कुपित, कलुषित, कुंठित
है शक्तिहीन, निज-सीमित 'मैं',
पर ओज तेज प्रताप प्रबल
भीतर में एक असीमित 'मैं'। 

मन में ठानूं कि भेद सकूं-
हो चक्रव्यूह जितना भी जटिल।
और भेद लड़ूं, डटकर निकलूँ 
हो चाहे शत्रु कितना ही कुटिल। 

है युद्ध बदला, बदली नीति,
मगर न धर्म हुआ अवसादित,
करे कपट कितना भी कोई,
मैं लडूँ, तो लड़ूं बस बन मर्यादित।

और हाँ माँ वचन तुमको देता हूँ,
हर चक्रव्यूह भेदता जाऊंगा मैं,
बन खुद तलवार और खुद ही ढाल,
अब जीत ही वापस आऊंगा मैं।

~ जेन्नी आंटी की रचना 'उठो अभिमन्यु ...' पर आधारित और ये पोस्ट उन्हें ही सादर समर्पित है।


Thursday, December 27, 2012

मानसिकता में बदलाव



नियमों को बदलने से क्या होगा,
जब नियत ही न बदल पाई हो?
बात आसमां में उड़ने की क्या हो,
जब ज़मीं पर ही न संभल पाई हो!

बड़ी बड़ी बातों में नहीं रखा है, 
जवाब हमारी आजादी का कहीं। 
इज्ज़त-ओ-कद्र के दो लफ्ज़ ही पर 
जब ज़ुबां हमारी न अमल कर पायी हो!

बात न क़ानून की रह गयी है कहीं,
और न किसी इन्साफ में ही दम है। 
गली-नुक्कड़ की गन्दगी पे क्या बोलें,
घर-आँगन में ये कचरा क्या कम है?

ज़रूरत है मानसिकता में बदलाव की,
ज़रूरत है कुरीतियों पे पथराव की।
ज़रूरत है कि इस ज़रूरत को समझे हम,
और घर से ही इस कमी की भरपाई हो।

Picture Courtesy: Priyadarshi Ranjan

Monday, December 24, 2012

विनती



यह दीन दशा अब देख देश की,
रोती  प्याला, रोती हाला।
चहु ओर व्यथा है, औ' विषाद है,
थर-थर काँपे मन-साक़ी बाला।

कैसी मादकता छा गयी समाज में!
किसने ढारी यह कलुषित हाला!
निःशब्द खड़ी, नियति पे रोती,
बस शोक मनाती मधुशाला।

कुछ पुष्प ईश-अर्पण के तुम,
श्रद्धा से परे हटा देना,
विनती उस बाला की करना,
बनी रहे उसकी मधुशाला।


Dedicated to that brave girl who is still struggling for life in Safdarjung Hospital. 
May God give her immense strength to recover soon. Amen. 

Wednesday, November 21, 2012

The Two Angels (दो परियाँ)



मन सुरभित, जीवन सुरभित,
ये हर्ष, प्रमोद की वाहिनी,
करतीं मृदुल मुस्कान लिए
हैं अठखेलियाँ मनभावनी।

जो लेता इनको गोदी में,
खुद ही इतराता फिरता है,
खिंचवा इनके संग-संग फोटो
क्या ही इठलाता फिरता है!

इनकी ममता पूजा जैसी,
वात्सल्य स्वयं सौरभ जैसा,
महके घर-आँगन नित इनसे,
चहकें तो स्वर्ग कहाँ ऐसा !

इन्हें देख नयन यूँ चमके हैं,
ज्यों चाँद हो पूनम श्रावणी,
हैं मनमोहक मनभावनी,
ये हर्ष, प्रमोद की वाहिनी!

:) :)


To my lovely niece-twins

Saturday, August 18, 2012

गंगा


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गंगा, पतित-पावनी गंगा-
तुम धरा पे अब कहाँ हो?
धुलेंगे क्या अब कर्म मेरे,
विषादज बन गए हैं जो?

श्वेताम्बरा- ये मलिन जल
तो मलयज भी रासता नहीं.
कह दो, कह दो, भरके हुंकार
कि इससे तुम्हारा वास्ता नहीं.

अब देवों की नदी कहाँ तुम?
दैत्यों के नगर जो बहती हो.
अमृत-सम थी, अब विषक्त हो
कैसे सब कुछ सहती हो?

लौट जाओ, लौट जाओ तुम
जाओ, जाना चाहे जहाँ हो
गंगा, पतित-पावनी गंगा-
तुम धरा पे अब कहाँ हो?


****************************
चित्र- गूगल से साभार

Wednesday, June 20, 2012

वनवास ३: तुम तो हो




जब एकांत में प्रशांति न हो,
और चित्त में विश्रांति न हो,
जब सपन-सलोने नयनों में
कौतूहल हो और कान्ति न हो,

जब ठिठके मुझसे मेरी छाया
यूँ जैसे कि पहचानती न हो
जब रूठे मुझसे मेरी तन्हाई,
मैं लाख मनाऊँ, वो मानती न हो,

तुम धीरे से पास बुलाना मुझे,
ख़ुद का एहसास दिलाना मुझे,
ताकि ये लगे कि तुम तो हो,
तुम्हारे न होने की भ्रान्ति न हो.



Picture Courtesy: Santanu Sinha

Friday, June 15, 2012

वनवास २: विरह, विषाद, वैराग्य


मत रोको, बहने दो अश्रुधार
है अंतर-निहित आत्म-उद्धार
ये विरह विलय की आगत है
करो स्वागत ले उर प्रेम अपार.
मत रोको, बहने दो अश्रुधार

क्षोभ नहीं, अभिनन्दन का
क्षण है ये जीवन-वंदन का
सम-भाव हो खोने-पाने में
यही है समुचित श्रेष्ठ विचार
मत रोको, बहने दो अश्रुधार

देखो जो बहे- बस पानी हो
दुःख की एकाध कहानी हो
ना नयनों से बह जाये कहीं
स्वर्णिम स्वप्नों का अम्बार
मत रोको, बहने दो अश्रुधार

Picture Courtesy: Priyadarshi Ranjan

Friday, June 8, 2012

वनवास १: स्वनिर्णित



वनवास कठिन होता है.
और होता है कुछ ज़्यादा ही
जब स्वनिर्णित होता है.

क्योंकि किसी ने कहा अगर
वनवास पे जाने को,
तो तुम चले भी जाओगे.
धर्म की, कर्त्तव्य की
मजबूरियों पर
तोहमत लगाओगे.
लेकिन जब
बिना किसी आग्रह
स्वयं ही जाना हो,
तो मन में कैकेयी, मंथरा
या फिर कौरव, शकुनी
कहाँ से लाओगे?

किसी ने बाँध दी
सीमायें अगर 
तो चुप रह जाना भी
सहज होता है.
जो स्वयं को स्वयं ही
बांधना पड़े,
तो वो असीम बल,
वो आत्म-विश्वास
कहाँ से लाओगे?

वनवास कठिन होता है.
और होता है कुछ ज़्यादा ही
जब स्वनिर्णित होता है.

Picture Courtesy: 'Embrace' by Sutapa Roy

Tuesday, May 15, 2012

उसका बोझ भारी है...



युवा आज का
कर्मी है, साक्षी भी,
युग-परिवर्तन का.
युवा आज का
सामंजस्य है
पाश्चात्य औ' पुरातन का.

युवा आज का
करता है विरोध,
जो अतीत ने थोपे थे
उन कुरीतियों का,
कुप्रथाओं का.
दहेज का, अस्पृश्यता का.

युवा आज का
कन्धा है वो
जो मिलकर चलता है,
स्त्री का, पुरुष का.
करता है बात
समान अवसरों का,
समान अधिकारों का.

सम्बल दो उसे,
निर्बलता  न गिनाओ,
उसका बोझ भारी है,
फिर भी बढ़ रहा है आगे.
युवा आज का!


Picture Courtesy: http://gogoihimanshu.blogspot.com/2011/03/indian-youth-and-politics-of-india.html

Tuesday, May 1, 2012

निर्वाण दो !





तुम्हारा सानिध्य हो
संकीर्णता से परे.
इन अस्थिर नयनों के
व्याकुल तरंगों को
चिर विश्राम दो,
मन को निर्वाण दो !

सफ़ेद चादर मन,
स्याह काली व्याकुलता,
बरबस लगते दाग,
कैसी ये अस्थिरता!
धुल जाए प्रारब्ध
ऐसा वरदान दो !
मन को निर्वाण दो !

निस्वार्थ अभिलाषाएं,
निजता का परित्याग,
अविरत चिर प्रखर
तप का विधान दो !
मन को निर्वाण दो !
 
Picture Courtesy: Priyadarshi Ranjan


P.S. http://lifewillbedifferentfromnowon.blogspot.in/2012/05/bear-grylls-that-she-is-not.html ) जब लिख रहा था तब बहुत विचलित था मन, और बार-बार यही ख्याल आ रहा था कि बस, बहुत हुआ, अब सब कुछ शून्य हो जाए... ताकि ना सुख रहे, ना दुःख... और इन सब से ऊपर उठकर मैं अपना जीवन निस्वार्थ  सेवा में सार्थक कर सकूं. मानता हूँ, निर्वाण परमगति है, परन्तु ईश्वर से यह मांगने की इच्छा जताकर कम-से-कम अपनी स्वार्थ-परक भावनाओं में लिप्त मन को शांत कर सकता हूँ.

Monday, February 20, 2012

ढिबरी


बिजली का बल्ब
जगमग, स्थिर, समतापी
ढिबरी की लौ
डगमग, अस्थिर, कालिखी
बल्ब शहरी, पढ़ी लिखी,
दुल्हन नयी-नवेली,
ढिबरी पुरानी सूत डली  
एक शीशी खाली
बल्ब का प्रकाश
साफ़ स्वच्छ अमीरी
ढिबरी की रौशनी
कुंठित काली ग़रीबी
बल्ब माने
सीना तान के चलना
ढिबरी माने
दुबकना भभकना
लुढकना फिसलना
क्या कहूं?
प्रारब्ध, प्रकृति या प्रवृत्ति!
या फिर
निज नियति की निवृत्ति!
क्योंकि
स्वच्छता में
कालिखी का
पता कहाँ चलता है!
और ये कि
एक बल्ब के लिए
सौ ढिबरीयों का तेल
कहीं और जलता है!

Saturday, December 31, 2011

जली रोटियां


एक ग़रीब दंपत्ति थी,
सीमित उनकी संपत्ति थी.
कुछ कपड़े, इक झोपड़ था,
थोड़े अनाज, थोड़ा जड़ था.

एक जाड़े की बात थी,
होने चली अब रात थी.
रात्रि-भोज की तैयारी थी,
पत्नी उसमे व्यस्त भारी थी.

सब्जी बनकर तैयार थी,
बनानी बस रोटी चार थी.
परथन में आटा कम था,
औ' चूल्हे पे तवा गरम था.

बेलन की आपाधापी में
रोटी पहली कुछ जल-सी गयी.
अफ़सोस किया उसने इसपर
लेकिन आगे संभल सी गयी.

पहले तो ईश-भोग लगायी,
फिर खाने की थाल बिछायी.
परोसा पत्नी ने खाना,
था कीमती हर इक दाना.

धीरे से फिर पत्नी ने,
जली रोटी खुद ही रख ली,
अच्छी रोटी की थाल बढा,
पति के हाथों में धर दी.

पति इससे अनजान न था,
पर पत्नी को अनुमान न था.
'सुन री, ज़रा अन्दर तो जा,
पानी भरा गिलास तो ला'.

पत्नी ये सुनते ही झट से
पानी लाने अन्दर को गयी,
पति ने इतने में फट से
रोटी की अदल-बदल कर ली.

फिर से बैठे दोनों संग में,
रंगे हुए समर्पण-रंग में.
इक-दूजे को देखते रहतें, 
कभी खाते, कभी बातें करतें.

पत्नी को सहसा ध्यान आया,
अदला-बदली का ज्ञान आया,
'अजी, रोटी तुमने क्यूँ बदली,
क्यूँ जली हुई खुद ही खा ली?'

'क्यूँ री! बनती होशियार बड़ी,
क्या तुझको मुझसे प्यार नहीं!
जो कुछ ख़राब, तू खुद लेती,
जो अच्छा सो मुझको देती!'

'तू तो मेरी अर्धांगन है,
तेरा तन भी मेरा तन है,
जो कुछ हो बांटे-खायेंगे,
ख़ुशी से झूमे, गायेंगे.'

दुःख में भी जो समर्पण हो
तो कहाँ जीवन खलता है!
छोटी-छोटी कमियों में भी
प्रगाढ़ प्रेम पलता है!

Picture Courtesy: http://indianculture-blog.blogspot.com/

Sunday, October 23, 2011

है निशा अब जाने को


है निशा अब जाने को,
क्षितिज पर आभा बिखर रही,
कंचन किरणों से कली-कली
पुष्पित होती औ' निखर रही.

वंदन चंदन अभिनंदन की
बेला सुमधुर सुर-साज भरी,
अरुणाभ अमित उज्ज्वलता से
पल्लव होती, हो प्रखर रही.

अनुराग निहित स्पंदन सा 
शीतल सरिता का सलिल लगे,
निर्बाध प्रवाह की अभिलाषा
अंतर नित प्रेरित कर रही.

है निशा अब जाने को,
क्षितिज पर आभा बिखर रही.

Picture Courtesy: Sachit
Place: Lonar Crater, Lonar, India

Saturday, April 23, 2011

इस पार प्रिये बस यादें हैं



एक सूनापन,एक खालीपन
बेनूर पड़ा मन का दर्पण.
उस पार तो हर क्षण जीवन था,
इस पार वही नीरस नर्तन.

उस पार प्रिये रस था उर में,
हर सांस में खुशबू बसती थी.
हर शब्द शहद सा मीठा था,
नयनों से नेह बरसती थी.

उस पार था मन संगीत भरा,
गीतों में प्रेम झलकता था.
हर मुखड़ा मनभावन लगता,
चहु-ओर स्नेह छलकता था.

उस पार तो जैसे अवनि पर
मुझको था अद्भुत स्वर्ग मिला.
उर से उर की बातें होतीं,
निजवर्ग मिला, सुखसर्ग मिला.

इस पार प्रिये बस यादें हैं,
पल चार बिताये जो तुम संग.
ना रस उर में ना कोई मधु,
बस मन का रंग- तुम्हारा 'रंग'.


Inspired by the poem:
"इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा! "
-हरिवंशराय 'बच्चन'

Wednesday, February 16, 2011

क्या तुम-सा कोई और कहीं है?




तुम हो जैसे शहद सुमन में.
पारिजात किसी कानन में.
या पावन अभिलाषा कोई
किसी मनीषि के साधन में.
गीत नया है, रीत नयी है.
क्या तुम-सा कोई और कहीं है?


तुम्हे देख मन खिल जाता है,
अपने बिम्ब से मिल जाता है.
जब भी तुम सन्मुख होती हो,
अंतर्मन निखिल पाता है.
तुम हो जहां, बहार वहीँ है.
क्या तुम-सा कोई और कहीं है?


मीठी-प्यारी तुम्हारी बातें,
रोम-रोम पुलकित कर जाती.
इक मधुर मुस्कान तुम्हारी
बुझता मन जीवित कर जाती.
तुम-सा सानी कहीं नहीं है.
क्या तुम-सा कोई और कहीं है?


Picture: A shot taken in Kem Sentosa (Malaysia)


For my hypothetical girlfriend, jo hai, kahin na kahin! :)

Wednesday, October 27, 2010

सजल आँखें


सपनें जहाँ बसते थे,

अरमान जहाँ जगते थे,

बयां करती थी जो हर पल

दिल के उमंगों को,

वो आज यूँ ख़ामोश हैं

जैसे फूल हो खिज़ा के.

तुम्हारी सजल आँखें.

Picture Courtsey: http://www.paintingsilove.com/image/show/127127/sadness
 Dedicated to my Dad, from whom I inherit writing six liners.

प्रिय तुम यूँही



प्रिय तुम यूँही दीपक सा बन,
प्राणों को उजियारा रखना,
प्रेम-नदी में खुद को एक
औ' मुझको एक किनारा रखना.


जब होते तुम पास हमारे,
मन मंद-मंद मुस्काता है,
और जब होते दूर कभी तो,
यादों में खो जाता है.
एक मधुर मुस्कान के जैसे
होंठों का इशारा रखना
प्रेम-नदी में खुद को एक
औ' मुझको एक किनारा रखना.

क्या हुआ जो जीवन पथ में
कंटकों के शर उगे हों,
क्या हुआ 'ग़र नियति में
दो-चार पल दूभर हुए हों,
तुम कोमल कुसुम  बिछाकर
मन के आँगन को प्यारा रखना
प्रेम-नदी में खुद को एक
औ' मुझको एक किनारा रखना.


प्रिय तुम यूँही दीपक सा बन,
प्राणों को उजियारा रखना
Dedicated to Swayam Bhaiya and Pooja Bhabhi, the sweet inspiration of living in love!!

Friday, September 17, 2010

फिर से मेघ घिर आये हैं



चांदी की सी चमचम इनमें
या फवें हों रुई की जैसे
खूब चले हैं बनठन कर और
गरज गरज इतराए हैं.
फिर से मेघ घिर आये हैं.

मन की सूखी धरा हमारी
व्याकुल तरस रही थी रस को.
देखो लेकर इन्द्र-कलश में
अमृत अविरत भर लायें हैं,
फिर से मेघ घिर आये हैं.

अंतर्मन की प्यास बुझेगी
कुंठा की सब झुलस हटेगी
तृप्त होंगे, मुस्कान खिलेगी,
सुख-संदेशा लायें हैं.
फिर से मेघ घिर आये हैं.

Dedicated to my college friends Arvind, Shishir, Sheetal, Nitin, Ajit and Rajesh

Tuesday, February 23, 2010

ओ तन्हाई


ओ तन्हाई,
मुझसे बातें कर.

दिल का कोई कोना,
कहीं रो रहा है.
सूझता न कुछ, जाने
क्या हो रहा है?
पास आ ज़रा,
अब तो ना मुकर.
ओ तन्हाई,
मुझसे बातें कर.

राह में देखे हैं मैंने
सैकड़ों उल्फत-दगा.
छोड़ सपनों के उड़ान,
अब मन जगा.
हाथ ले तू थाम,
देखता है किधर?
ओ तन्हाई,
मुझसे बातें कर.


बाँध ले मुझको,
कहीं ना छूट जाऊं.
जोड़ दे हिम्मत,
कहीं ना टूट जाऊं.
खुद पे खामोशी का,
ऐसा हो असर!
ओ तन्हाई,
मुझसे बातें कर.

Picture courtsey: http://www.randyyork.net/7182.html

Sunday, February 14, 2010

मन, तूने क्या पाया था?


मन, तूने क्या पाया था?

नियति नहीं खेलती
मृग-तृष्णा का खेल.
नित्य यहाँ होता है
विरह और मेल.
फिर भ्रमितों की भांति
तू क्यूँ भरमाया था?
मन, तूने क्या पाया था?

अज्ञान का तिमिर भी
है समय का बंधक.
मंथन के प्रकाश में
हो जाता है पृथक.
व्यर्थ की मादकता में
तू क्यूँ डगमगाया था?
मन, तूने क्या पाया था?


त्रिवेणी सा नहीं होता
हर घाट यहाँ पर.
श्वेत-श्यामला जहाँ
मिल जाएँ उमड़ कर.
बहती धारा का क्षोभ
तूने क्यूँ मनाया था?
मन, तूने क्या पाया था?

सत्कर्मों का हर साधी,
आराध्य नहीं होता है.
और विनीत है वो सदैव
बाध्य नहीं होता है.
जीवन के उपवन में क्या
पारिजात खिल आया था?
मन, तूने क्या पाया था?

Picture Courtesy: http://vwoopvwoop.wordpress.com/2011/12/01/respecting-other-peoples-grief/