Friday, June 28, 2013
उठो अभिमन्यु ... से प्रेरित होकर
Thursday, December 27, 2012
मानसिकता में बदलाव
Picture Courtesy: Priyadarshi Ranjan
Monday, December 24, 2012
विनती
यह दीन दशा अब देख देश की,
रोती प्याला, रोती हाला।
चहु ओर व्यथा है, औ' विषाद है,
थर-थर काँपे मन-साक़ी बाला।
कैसी मादकता छा गयी समाज में!
किसने ढारी यह कलुषित हाला!
निःशब्द खड़ी, नियति पे रोती,
बस शोक मनाती मधुशाला।
कुछ पुष्प ईश-अर्पण के तुम,
श्रद्धा से परे हटा देना,
विनती उस बाला की करना,
बनी रहे उसकी मधुशाला।
Dedicated to that brave girl who is still struggling for life in Safdarjung Hospital.
May God give her immense strength to recover soon. Amen.
Wednesday, November 21, 2012
The Two Angels (दो परियाँ)
मन सुरभित, जीवन सुरभित,
ये हर्ष, प्रमोद की वाहिनी,
करतीं मृदुल मुस्कान लिए
हैं अठखेलियाँ मनभावनी।
जो लेता इनको गोदी में,
खुद ही इतराता फिरता है,
खिंचवा इनके संग-संग फोटो
क्या ही इठलाता फिरता है!
इनकी ममता पूजा जैसी,
वात्सल्य स्वयं सौरभ जैसा,
महके घर-आँगन नित इनसे,
चहकें तो स्वर्ग कहाँ ऐसा !
इन्हें देख नयन यूँ चमके हैं,
ज्यों चाँद हो पूनम श्रावणी,
हैं मनमोहक मनभावनी,
ये हर्ष, प्रमोद की वाहिनी!
:) :)
To my lovely niece-twins
Saturday, August 18, 2012
गंगा
***************************
गंगा, पतित-पावनी गंगा-
तुम धरा पे अब कहाँ हो?
धुलेंगे क्या अब कर्म मेरे,
विषादज बन गए हैं जो?
श्वेताम्बरा- ये मलिन जल
तो मलयज भी रासता नहीं.
कह दो, कह दो, भरके हुंकार
कि इससे तुम्हारा वास्ता नहीं.
अब देवों की नदी कहाँ तुम?
दैत्यों के नगर जो बहती हो.
अमृत-सम थी, अब विषक्त हो
कैसे सब कुछ सहती हो?
लौट जाओ, लौट जाओ तुम
जाओ, जाना चाहे जहाँ हो
गंगा, पतित-पावनी गंगा-
तुम धरा पे अब कहाँ हो?
****************************
चित्र- गूगल से साभार
Wednesday, June 20, 2012
वनवास ३: तुम तो हो
जब एकांत में प्रशांति न हो,
और चित्त में विश्रांति न हो,
जब सपन-सलोने नयनों में
कौतूहल हो और कान्ति न हो,
जब ठिठके मुझसे मेरी छाया
यूँ जैसे कि पहचानती न हो
जब रूठे मुझसे मेरी तन्हाई,
मैं लाख मनाऊँ, वो मानती न हो,
तुम धीरे से पास बुलाना मुझे,
ख़ुद का एहसास दिलाना मुझे,
ताकि ये लगे कि तुम तो हो,
तुम्हारे न होने की भ्रान्ति न हो.
Picture Courtesy: Santanu Sinha
Friday, June 15, 2012
वनवास २: विरह, विषाद, वैराग्य
मत रोको, बहने दो अश्रुधार
है अंतर-निहित आत्म-उद्धार
ये विरह विलय की आगत है
करो स्वागत ले उर प्रेम अपार.
मत रोको, बहने दो अश्रुधार
क्षोभ नहीं, अभिनन्दन का
क्षण है ये जीवन-वंदन का
सम-भाव हो खोने-पाने में
यही है समुचित श्रेष्ठ विचार
मत रोको, बहने दो अश्रुधार
देखो जो बहे- बस पानी हो
दुःख की एकाध कहानी हो
ना नयनों से बह जाये कहीं
स्वर्णिम स्वप्नों का अम्बार
मत रोको, बहने दो अश्रुधार
Picture Courtesy: Priyadarshi Ranjan
Friday, June 8, 2012
वनवास १: स्वनिर्णित
वनवास कठिन होता है.
और होता है कुछ ज़्यादा ही
जब स्वनिर्णित होता है.
क्योंकि किसी ने कहा अगर
वनवास पे जाने को,
तो तुम चले भी जाओगे.
धर्म की, कर्त्तव्य की
मजबूरियों पर
तोहमत लगाओगे.
लेकिन जब
बिना किसी आग्रह
स्वयं ही जाना हो,
तो मन में कैकेयी, मंथरा
या फिर कौरव, शकुनी
कहाँ से लाओगे?
किसी ने बाँध दी
सीमायें अगर
तो चुप रह जाना भी
सहज होता है.
जो स्वयं को स्वयं ही
बांधना पड़े,
तो वो असीम बल,
वो आत्म-विश्वास
कहाँ से लाओगे?
वनवास कठिन होता है.
और होता है कुछ ज़्यादा ही
जब स्वनिर्णित होता है.
Picture Courtesy: 'Embrace' by Sutapa Roy
Tuesday, May 15, 2012
उसका बोझ भारी है...
युवा आज का
युवा आज का
सामंजस्य है
पाश्चात्य औ' पुरातन का.
युवा आज का
करता है विरोध,
जो अतीत ने थोपे थे
उन कुरीतियों का,
कुप्रथाओं का.
दहेज का, अस्पृश्यता का.
युवा आज का
कन्धा है वो
जो मिलकर चलता है,
स्त्री का, पुरुष का.
करता है बात
समान अवसरों का,
समान अधिकारों का.
सम्बल दो उसे,
फिर भी बढ़ रहा है आगे.
युवा आज का!
Picture Courtesy: http://gogoihimanshu.blogspot.com/2011/03/indian-youth-and-politics-of-india.html
Tuesday, May 1, 2012
निर्वाण दो !
इन अस्थिर नयनों के
व्याकुल तरंगों को
चिर विश्राम दो,
मन को निर्वाण दो !
सफ़ेद चादर मन,
स्याह काली व्याकुलता,
बरबस लगते दाग,
कैसी ये अस्थिरता!
धुल जाए प्रारब्ध
ऐसा वरदान दो !
मन को निर्वाण दो !
निस्वार्थ अभिलाषाएं,
निजता का परित्याग,
अविरत चिर प्रखर
तप का विधान दो !
मन को निर्वाण दो !
Picture Courtesy: Priyadarshi Ranjan
Monday, February 20, 2012
ढिबरी
बिजली का बल्ब
जगमग, स्थिर, समतापी
ढिबरी की लौ
डगमग, अस्थिर, कालिखी
बल्ब शहरी, पढ़ी लिखी,
दुल्हन नयी-नवेली,
ढिबरी पुरानी सूत डली
एक शीशी खाली
बल्ब का प्रकाश
साफ़ स्वच्छ अमीरी
ढिबरी की रौशनी
कुंठित काली ग़रीबी
बल्ब माने
सीना तान के चलना
ढिबरी माने
दुबकना भभकना
लुढकना फिसलना
क्या कहूं?
प्रारब्ध, प्रकृति या प्रवृत्ति!
या फिर
निज नियति की निवृत्ति!
क्योंकि
स्वच्छता में
कालिखी का
पता कहाँ चलता है!
और ये कि
एक बल्ब के लिए
सौ ढिबरीयों का तेल
कहीं और जलता है!
Saturday, December 31, 2011
जली रोटियां
एक ग़रीब दंपत्ति थी,
सीमित उनकी संपत्ति थी.
कुछ कपड़े, इक झोपड़ था,
थोड़े अनाज, थोड़ा जड़ था.
एक जाड़े की बात थी,
होने चली अब रात थी.
रात्रि-भोज की तैयारी थी,
पत्नी उसमे व्यस्त भारी थी.
सब्जी बनकर तैयार थी,
बनानी बस रोटी चार थी.
परथन में आटा कम था,
औ' चूल्हे पे तवा गरम था.
बेलन की आपाधापी में
रोटी पहली कुछ जल-सी गयी.
अफ़सोस किया उसने इसपर
लेकिन आगे संभल सी गयी.
पहले तो ईश-भोग लगायी,
फिर खाने की थाल बिछायी.
परोसा पत्नी ने खाना,
था कीमती हर इक दाना.
धीरे से फिर पत्नी ने,
जली रोटी खुद ही रख ली,
अच्छी रोटी की थाल बढा,
पति के हाथों में धर दी.
पति इससे अनजान न था,
पर पत्नी को अनुमान न था.
'सुन री, ज़रा अन्दर तो जा,
पानी भरा गिलास तो ला'.
पत्नी ये सुनते ही झट से
पानी लाने अन्दर को गयी,
पति ने इतने में फट से
रोटी की अदल-बदल कर ली.
फिर से बैठे दोनों संग में,
रंगे हुए समर्पण-रंग में.
इक-दूजे को देखते रहतें,
कभी खाते, कभी बातें करतें.
पत्नी को सहसा ध्यान आया,
अदला-बदली का ज्ञान आया,
'अजी, रोटी तुमने क्यूँ बदली,
क्यूँ जली हुई खुद ही खा ली?'
'क्यूँ री! बनती होशियार बड़ी,
क्या तुझको मुझसे प्यार नहीं!
जो कुछ ख़राब, तू खुद लेती,
जो अच्छा सो मुझको देती!'
'तू तो मेरी अर्धांगन है,
तेरा तन भी मेरा तन है,
जो कुछ हो बांटे-खायेंगे,
ख़ुशी से झूमे, गायेंगे.'
दुःख में भी जो समर्पण हो
तो कहाँ जीवन खलता है!
छोटी-छोटी कमियों में भी
प्रगाढ़ प्रेम पलता है!
Picture Courtesy: http://indianculture-blog.blogspot.com/
Sunday, October 23, 2011
है निशा अब जाने को
है निशा अब जाने को,
क्षितिज पर आभा बिखर रही,
वंदन चंदन अभिनंदन की
बेला सुमधुर सुर-साज भरी,
अरुणाभ अमित उज्ज्वलता से
पल्लव होती, हो प्रखर रही.
निर्बाध प्रवाह की अभिलाषा
अंतर नित प्रेरित कर रही.
है निशा अब जाने को,
क्षितिज पर आभा बिखर रही.
Picture Courtesy: Sachit
Place: Lonar Crater, Lonar, India
Saturday, April 23, 2011
इस पार प्रिये बस यादें हैं
एक सूनापन,एक खालीपन
बेनूर पड़ा मन का दर्पण.
उस पार तो हर क्षण जीवन था,
उस पार न जाने क्या होगा! "
Picture Courtsey: http://www.wallpapersdb.org/original/1573/
Wednesday, February 16, 2011
क्या तुम-सा कोई और कहीं है?
Picture: A shot taken in Kem Sentosa (Malaysia)
For my hypothetical girlfriend, jo hai, kahin na kahin! :)
Wednesday, October 27, 2010
सजल आँखें
सपनें जहाँ बसते थे,
अरमान जहाँ जगते थे,
बयां करती थी जो हर पल
दिल के उमंगों को,
वो आज यूँ ख़ामोश हैं
जैसे फूल हो खिज़ा के.
तुम्हारी सजल आँखें.
Picture Courtsey: http://www.paintingsilove.com/image/show/127127/sadness
Dedicated to my Dad, from whom I inherit writing six liners.
प्रिय तुम यूँही
प्रिय तुम यूँही दीपक सा बन,
प्राणों को उजियारा रखना,
प्रेम-नदी में खुद को एक
औ' मुझको एक किनारा रखना.
जब होते तुम पास हमारे,
मन मंद-मंद मुस्काता है,
और जब होते दूर कभी तो,
यादों में खो जाता है.
एक मधुर मुस्कान के जैसे
होंठों का इशारा रखना
प्रेम-नदी में खुद को एक
औ' मुझको एक किनारा रखना.
क्या हुआ जो जीवन पथ में
कंटकों के शर उगे हों,
क्या हुआ 'ग़र नियति में
दो-चार पल दूभर हुए हों,
तुम कोमल कुसुम बिछाकर
मन के आँगन को प्यारा रखना
प्रेम-नदी में खुद को एक
औ' मुझको एक किनारा रखना.
प्रिय तुम यूँही दीपक सा बन,
प्राणों को उजियारा रखना
Friday, September 17, 2010
फिर से मेघ घिर आये हैं
या फवें हों रुई की जैसे
खूब चले हैं बनठन कर और
गरज गरज इतराए हैं.
फिर से मेघ घिर आये हैं.
मन की सूखी धरा हमारी
व्याकुल तरस रही थी रस को.
देखो लेकर इन्द्र-कलश में
अमृत अविरत भर लायें हैं,
फिर से मेघ घिर आये हैं.
अंतर्मन की प्यास बुझेगी
कुंठा की सब झुलस हटेगी
तृप्त होंगे, मुस्कान खिलेगी,
सुख-संदेशा लायें हैं.
फिर से मेघ घिर आये हैं.
Dedicated to my college friends Arvind, Shishir, Sheetal, Nitin, Ajit and Rajesh
Tuesday, February 23, 2010
ओ तन्हाई
ओ तन्हाई,
मुझसे बातें कर.
दिल का कोई कोना,
कहीं रो रहा है.
सूझता न कुछ, जाने
क्या हो रहा है?
पास आ ज़रा,
अब तो ना मुकर.
ओ तन्हाई,
मुझसे बातें कर.
राह में देखे हैं मैंने
सैकड़ों उल्फत-दगा.
छोड़ सपनों के उड़ान,
अब मन जगा.
हाथ ले तू थाम,
देखता है किधर?
ओ तन्हाई,
मुझसे बातें कर.
बाँध ले मुझको,
कहीं ना छूट जाऊं.
जोड़ दे हिम्मत,
कहीं ना टूट जाऊं.
खुद पे खामोशी का,
ऐसा हो असर!
ओ तन्हाई,
मुझसे बातें कर.
Picture courtsey: http://www.randyyork.net/7182.html
Sunday, February 14, 2010
मन, तूने क्या पाया था?
मन, तूने क्या पाया था?
नियति नहीं खेलती
मृग-तृष्णा का खेल.
नित्य यहाँ होता है
विरह और मेल.
फिर भ्रमितों की भांति
तू क्यूँ भरमाया था?
मन, तूने क्या पाया था?
अज्ञान का तिमिर भी
है समय का बंधक.
मंथन के प्रकाश में
हो जाता है पृथक.
व्यर्थ की मादकता में
तू क्यूँ डगमगाया था?
मन, तूने क्या पाया था?
त्रिवेणी सा नहीं होता
हर घाट यहाँ पर.
श्वेत-श्यामला जहाँ
मिल जाएँ उमड़ कर.
बहती धारा का क्षोभ
तूने क्यूँ मनाया था?
मन, तूने क्या पाया था?
सत्कर्मों का हर साधी,
आराध्य नहीं होता है.
और विनीत है वो सदैव
बाध्य नहीं होता है.
जीवन के उपवन में क्या
पारिजात खिल आया था?
मन, तूने क्या पाया था?
Picture Courtesy: http://vwoopvwoop.wordpress.com/2011/12/01/respecting-other-peoples-grief/