Saturday, December 31, 2011

जली रोटियां


एक ग़रीब दंपत्ति थी,
सीमित उनकी संपत्ति थी.
कुछ कपड़े, इक झोपड़ था,
थोड़े अनाज, थोड़ा जड़ था.

एक जाड़े की बात थी,
होने चली अब रात थी.
रात्रि-भोज की तैयारी थी,
पत्नी उसमे व्यस्त भारी थी.

सब्जी बनकर तैयार थी,
बनानी बस रोटी चार थी.
परथन में आटा कम था,
औ' चूल्हे पे तवा गरम था.

बेलन की आपाधापी में
रोटी पहली कुछ जल-सी गयी.
अफ़सोस किया उसने इसपर
लेकिन आगे संभल सी गयी.

पहले तो ईश-भोग लगायी,
फिर खाने की थाल बिछायी.
परोसा पत्नी ने खाना,
था कीमती हर इक दाना.

धीरे से फिर पत्नी ने,
जली रोटी खुद ही रख ली,
अच्छी रोटी की थाल बढा,
पति के हाथों में धर दी.

पति इससे अनजान न था,
पर पत्नी को अनुमान न था.
'सुन री, ज़रा अन्दर तो जा,
पानी भरा गिलास तो ला'.

पत्नी ये सुनते ही झट से
पानी लाने अन्दर को गयी,
पति ने इतने में फट से
रोटी की अदल-बदल कर ली.

फिर से बैठे दोनों संग में,
रंगे हुए समर्पण-रंग में.
इक-दूजे को देखते रहतें, 
कभी खाते, कभी बातें करतें.

पत्नी को सहसा ध्यान आया,
अदला-बदली का ज्ञान आया,
'अजी, रोटी तुमने क्यूँ बदली,
क्यूँ जली हुई खुद ही खा ली?'

'क्यूँ री! बनती होशियार बड़ी,
क्या तुझको मुझसे प्यार नहीं!
जो कुछ ख़राब, तू खुद लेती,
जो अच्छा सो मुझको देती!'

'तू तो मेरी अर्धांगन है,
तेरा तन भी मेरा तन है,
जो कुछ हो बांटे-खायेंगे,
ख़ुशी से झूमे, गायेंगे.'

दुःख में भी जो समर्पण हो
तो कहाँ जीवन खलता है!
छोटी-छोटी कमियों में भी
प्रगाढ़ प्रेम पलता है!

Picture Courtesy: http://indianculture-blog.blogspot.com/

Thursday, December 29, 2011

मैं ज़रा-सा धीर धर लूँ



छंद यूँ काफी नहीं,
है रात भी बाकी अभी,
वक़्त भी ठहरा हुआ है,
मैं ज़रा-सा धीर धर लूँ.

मुझसे तुम ना अलग कहीं!
मैं पर हूँ तुम विहग वही.
इस सुनहरे आसमाँ में,
उड़के देखूं और विचर लूँ. 

प्रेम नहीं आराधन हो तुम,
मीत मेरे मेरा मन हो तुम.
सुस्वपन-सा इन नयन में ,
मैं निशा का हीर धर लूँ.

है दिखाती मन की दृष्टि,
कि अधूरी मेरी सृष्टि,
थाम लो जो हाथ तुम तो,
अपनी सृष्टि पूर्ण कर लूँ.

मैं ज़रा-सा धीर धर लूँ.



Sunday, December 18, 2011

मैं खुद से बातें करता हूँ!






कभी न्यारी-सी प्यारी बातें,
कभी विचारों से भरी बातें,
उर के भीतर एक द्वंद्व मैं
अनायास ही लड़ता हूँ!
मैं खुद से बातें करता हूँ!

खुद को ही दो टुकड़ों में कर
खुद ही कहता, खुद सुनता हूँ.
कोलाहल में सामंजस्य का
नव नित रूप मैं गढ़ता हूँ.
मैं खुद से बातें करता हूँ!

स्व-चिंतन ही आत्मबोध है,
अंतर-मनन सर्वोत्तम शोध है,
मन के गागर को मैं नित नित
गंगा-जमुना से भरता हूँ.
मैं खुद से बातें करता हूँ!


Picture Courtesy: Santanu Sinha

Thursday, December 8, 2011

स्पर्श




सहसा ही छू लेते हो मन को तुम,
और साँसें बस थमी रह जाती हैं.
आवाज़ धडकनों की इतनी तेज़
कि कानों तक गूँज जाती है.
दिल उमड़ता है ऐसे कि जैसे
सब कुछ न्योछावर कर दे!
कितनी विह्व्हलता आ जाती है!
प्रेम औ' समर्पण के समागम में
तृष्णा बस लेष रह जाती है.
और एक ही कुछ होता है,
थोड़ा तुम-सा, थोड़ा मुझ-सा,
पृथा बस घुल सी जाती है!

Picture Courtesy: http://artandperception.com/2008/03/natural-abstracts.html

Sunday, December 4, 2011

तुम मेरा हाल न पूछो ...



तुम मेरा हाल न पूछो, बड़ा कमाल-सा हूँ मैं,
ज़हर के घूँट पीकर भी, शरों में ढाल-सा हूँ मैं.

सिफर तक टूट करके भी, सफ़र है बरकरार मेरा,
कि इन ख़ामोश पलों में भी, बड़ा वाचाल-सा हूँ मैं.

अजब-सी राह ये ज़िन्दगी, सिला मुझको मिला ऐसा,
कि जो भी साज़ तुम छेड़ो, उसी में ताल-सा हूँ मैं.

ज़रुरत इस अँधेरे में पड़े,  बेशक बुला लेना
कि तूफाँ में भी जो जलता है वो मशाल-सा हूँ मैं.

जो जीना है तो जी भर के जियो, बनके ज़रा 'मधुर'
कि उल्फ़त में नहीं कहते कभी 'बेहाल-सा हूँ मैं'!

Picture Courtesy: http://virin.tumblr.com/post/6380054846/strength-of-a-man-abstract-nellie-vin-by-nellie

Monday, November 21, 2011

एक छोटी-सी Love Story


एक बार एक बिल्ली-
बड़ी प्यारी-सी, दुलारी-सी बिल्ली,
एक चूहे पे मर मिटी.
चूहा बिचारा,छोटा, नादान,
बिल्ली को पीछा करता देख,
हो गया परेशान.
जब भी बिल्ली approach मारती,
चूहा फटाक से भाग खड़ा होता.
करता भी क्या, क्या जान अपनी खोता?
बिल्ली अनबुझ-सी सोचती रहती 
कि कैसे बताऊँ
darling मैं जान लेना नहीं,
देना चाहती हूँ.
मैं बाकी बिल्लियों सी नहीं
मैं बहुत अलग हूँ, जुदा हूँ.
पर कैसे कहूँ कि तुमपर फ़िदा हूँ!
प्रेम-पथ भी कितना
असमंजस भरा है!
होना था निर्भीक औ'
भयभीत खड़ा है!
बिल्ली बिचारी frustrated ,
full glass चढ़ा गयी.
चढ़ाया भी ऐसा कि फुर्ती में आ गयी.
पटका glass औ' सरपट दौड़ी,
हुआ सामना, दोनों भागे.
बिल्ली पीछे, चूहा आगे.
धर-पकड़ औ' भागम-भाग!
इधर कुँवा, औ' उधर आग!
पर खेल का होना था अंत
चूहा फंसा, रास्ता था बंद.
आँखें मूंदी, किया नमन,
बची थी उसकी साँसे चंद.
बिल्ली अब आगे बढ़ी,
कहा i love you ,
of course  थी चढ़ी!
किया आलिंगन,
दिया चुम्बन!
चूहा स्तब्ध रह गया,
एकदम निशब्द रह गया!

Picture Courtesy: http://cute-n-tiny.com/cute-animals/cat-and-rat-pals/

Sunday, November 20, 2011

सन्दर्भ विवाह का


विलय-
दो सपनों का,
दो साँसों का,
धडकनों का,
एहसासों का.

विस्तार-
भावनाओं का,
विचारों का,
अनुभूति का,
आधारों का.

विवाह-
नव पथ पर,
नयी दिशा में,
विशेष प्रवाह
जीवन का!
 
Picture Courtesy: http://juganue.deviantart.com/

Entropy-ism 2


संकीर्णता
विवेक की,
विस्तार ढूँढती है!

साधना के
अनुपम सोपान से,
साकार ढूँढती है!

जो निश्चित है,
निरंतर है,
हर बार ढूँढती है!

इक ललित लय में
विलय का
आधार ढूंढती है! 

संकीर्णता ही तो है जो,
विस्तार ढूँढती है!


Picture: Thosegarh Plateau, Satara, Maharashtra, India 

Sunday, November 13, 2011

प्रकृति की वेदना


Our mother nature is continuously being exploited without any rationale. This selfish attitude of human being has drastic repercussions on themselves. If we don't get out of this darkness, nature will have her own way out. Spread the message: 'Save Earth!!'

तुम कहते मैं अभिमानी,
करती नित अपनी मनमानी.
क्या लाज शेष रख करती भी,
जब हर क्षण में मैं मरती हूँ?

हाँ तुमने मुझको धिक्कारा,
निज स्वार्थ तमस घेरा डाला,
इस अन्धकार की अग्नि में
कर धधक-धधक मैं जलती हूँ.

लेकिन मुझे न पश्चाताप,
और न कोई ही संताप,
क्यूँकी हर मृत्यु के बाद प्रिये
इक प्राण नवल मैं धरती हूँ!

हाँ, हर क्षण में मैं मरती हूँ!

Picture Courtesy: scienceray.com

Sunday, October 30, 2011

अतीत से द्वंद्व




वो जो मुझमे था,
ख़ुद ही खोया पड़ा है!
शायद वो भी ख़ुद को,
कहीं और ढूंढ रहा है!
और तुम क्या तुम ही हो?
कल कुछ और ही थे,
आज कुछ और ही हो.
कल का पता,
ना तुम्हे है, ना हमें.
वक़्त के साथ सम्यक
ना तुम हो, ना हम हैं.
जब खूब पहचान थी तुम्हे,
तो आज भरोसा क्यूँ कम है!
तुम बदले, इसका तो नहीं,
हाँ मैं बदला, इसका ग़म है!
इसीलिए ढूंढ रहा हूँ ख़ुद को,
कि वक़्त फिर मुझे ना बदले.
मैं होऊं तो शाश्वत होऊं,
वरना जीवन निरर्थक है!

Saturday, October 29, 2011

ज़रा मुस्कुराईये!


कुछ बीती बातों पे,
बरबस मुलाकातों पे,
मीठे अल्फाजों पे,
ग़ौर फरमाईये,
ज़रा मुस्कुराईये!

हर फिक्र धुंए में
कहाँ उड़ पाती है!
यारों की सोहबत भी
फीकी पड़ जाती है!
जिंदादिली बचपन की 
बटोर लाईये,
ज़रा मुस्कुराईये!


कई लम्हे हैं,
कतरे-कतरे में,
जिंदगानी लिए हुए.
चुन-चुन के उन्हें 
आँखों में भर लाईये
ज़रा मुस्कुराईये!




Wednesday, October 26, 2011

Entropy-ism



We meditate...to seize the mind from outwards....although it is against the natural flow, against the entropy...yet we do..!!

सरिता का सागर में मिलना,
कलियों का फूल में खिलना,
और ओस की नन्ही बूंदों का
पत्तियों से लुढ़कना-फिसलना,

अविराम है, अगणित भी
स्वतः स्फूर्त है, स्वतः शील भी
प्रायोजित है, नियोजित भी.
कितना संभव है संभलना?

नियति के निश्चित-अनिश्चित पे
कैसा विलाप और कैसा मंथन?
आखिर इस (अ)सीमित मन का
बंधन प्रेम है या कि प्रेम बंधन?

Picture Courtesy: kealwallpapers.com

Sunday, October 23, 2011

है निशा अब जाने को


है निशा अब जाने को,
क्षितिज पर आभा बिखर रही,
कंचन किरणों से कली-कली
पुष्पित होती औ' निखर रही.

वंदन चंदन अभिनंदन की
बेला सुमधुर सुर-साज भरी,
अरुणाभ अमित उज्ज्वलता से
पल्लव होती, हो प्रखर रही.

अनुराग निहित स्पंदन सा 
शीतल सरिता का सलिल लगे,
निर्बाध प्रवाह की अभिलाषा
अंतर नित प्रेरित कर रही.

है निशा अब जाने को,
क्षितिज पर आभा बिखर रही.

Picture Courtesy: Sachit
Place: Lonar Crater, Lonar, India

Sunday, October 2, 2011

क्या खोया? और क्या पाया है!



मैंने जितना
पाके खोया,
उससे ज़्यादा
खोके पाया.

और अब सोचता,
इस अतीत में,
कितना खोया!
कितना पाया!

क्या समृद्धि
पाना ही है?
या फिर वृद्धि
खोना भी है!

ये भी जानना
ज़रूरी है कितना!
कि क्या खोया है,
क्या पाया है !!  


Picture: River Manas, India-Bhutan border (Courtsey: Amit Raj Singh)



   

Saturday, September 24, 2011

यही तो है!





वक़्त के आईने में अपना ही चेहरा तब्दील हो जाता है.
और हम पीछे मुड़कर देखते हैं उन लम्हों को - इसी आईने में... तो वही प्यारा बचपन खिलखिलाता नज़र आता है.
अपनी आज की तस्वीर से अक्सर ये पूछा करते हैं -
'कहाँ है वो बचपन? क्या दूर कहीं है?? या यहीं कहीं है, छिपा हुआ-सा, अपने अन्दर ही!'


फूलों में बिखरे रंगों में,
या चंचल जल-तरंगों में,
यूँ धूप-छाँव में निखरा-सा,
जो नेह भरा, यही तो है!

वो बचपन की लड़ाई में,
या यौवन की अंगड़ाई में,
यूँ खोया, भूला, भटका-सा
जो ढूँढ रहा, यही तो है!

बरसों बचपन के दामन में,
जो गीत गुनगुनाए हैं हमने,
हवाओं के इन झोंकों में,
ये सरसराहट! यही तो है!...

...
हवाओं के इन झोंकों में,
ये सरसराहट! यही तो है!
खामोश लबों पे भीनी-सी
ये मुस्कराहट! यही तो है!

Tuesday, September 6, 2011

अग्निपथ से प्रेरित

कर आगे मत कर !
बढ़कर पथ पर पग धर !
तू क्यूँ विवश खड़ा है यूँ
डरकर, थककर, सहमकर?
सृजन सौभाग्य स्वयं कर,
सिर ऊंचा कर, होकर निडर !
बढ़कर पथ पर पग धर !
Inspired by 'Harivansh Rai Bachchan' :)

Sunday, August 21, 2011

तुम याद बहुत आते हो!






कैसे लिख दूं गीत किसी दिन?
कैसे शब्द पिरोऊँ तुम बिन?
ये अंतर, जो है उद्विग्न सा,
क्यूँ उसको और जलाते हो?
तुम याद बहुत आते हो!

कानों में बस शब्द तुम्हारे,
उर में सौम्य-सरसता धारे,
चाहे जितनी दूर रहूँ मैं
तुम उतना पास बुलाते हो!
हाँ, याद बहुत आते हो!

प्रेम की सीमा अंकित करके,
अपनी सृष्टि परिमित करके,
जब जाता मैं मन विमुख करके,
किस डोर फिर खींचे जाते हो?
तुम याद बहुत आते हो!

Picture : China Rose (Rosa sinensis) (from my garden back home!)

Friday, July 29, 2011

Village on the go


 
पंख पंखुडियां,
पतली पगडंडियाँ,
बाग़- बागीचे,
खेत खलिहान.


ऊपर नीरद,
नीचे नहरें,
पीली सरसों,
सुनहरी धान.


बरसे बरखा,
रोमिल रिमझिम,
सुमधुर सावन
का आदान.


बाह्य धरा तो
है संतृप्त-सी,
फिर भी आतुर
ये अन्तःकरण


आशाओं की
घिरी घटा में,
मुग्ध-मधुर हो
मचले ये मन.


Dedicated to: Amit Bhaiya, Swarnlata Di, Supratim da, Garima Di and Shikha Di 

Sunday, July 3, 2011

अहा ज़िन्दगी


लम्हों-लम्हों में समाती सी ज़िंदगी,
बूँद-बूँद में सिमटती सी ज़िंदगी.

ख्वाहिशों के ऊंचे आसमान में
उड़ान को मचलती सी ज़िंदगी.

इक आशियां जहाँ हमसुखन हों सभी
उसे तलाशती सी, शाहीं सी ज़िंदगी.

इक नग़मा जो रूह में कना-अत भर दे,
उसे गाती सी, गुनगुनाती सी ज़िंदगी.

सख्त-कोशी में तलख है, शहद भी,
जो है जिस ओर, उसे अपनाती सी ज़िन्दगी.


Such a short life it is!
And each moment is so adorable!
It yearns to fly high in the sky of dreams,
It yearns to rest n chat with close friends,
It yearns to sing a song that satiates the soul,
But it keeps accepting whatever comes in the way!

Saturday, May 28, 2011

बादल कब तक धरती को छाँव देगा?


जितनी धरती झुलसी जाती,
वो उतना ही संचित करता है.
उसके त्यागे बूँद बूँद से,
अपनी सीमा विस्तृत करता है.
और फिर अपना ह्रदय बढाकर
अपनी छाँव बड़ा करता है.
फिर भी 'कितनी छाँव मिलेगी'
हर क्षण ये सोचा करता है.

बरबस फिर वो एक दिन यूँ
खुद ही में उमड़ पड़ता है.
टूट-टूट कर, गरज-बरस कर,
धरती को संतृप्त करता है.
क्या तोड़ अपनी सीमा वो,
बोलो कुछ ग़लत करता है?

आखिर बादल कब तक यूँ
धरती को छाँव देता!
Dedicated to my Dad

Saturday, April 23, 2011

इस पार प्रिये बस यादें हैं



एक सूनापन,एक खालीपन
बेनूर पड़ा मन का दर्पण.
उस पार तो हर क्षण जीवन था,
इस पार वही नीरस नर्तन.

उस पार प्रिये रस था उर में,
हर सांस में खुशबू बसती थी.
हर शब्द शहद सा मीठा था,
नयनों से नेह बरसती थी.

उस पार था मन संगीत भरा,
गीतों में प्रेम झलकता था.
हर मुखड़ा मनभावन लगता,
चहु-ओर स्नेह छलकता था.

उस पार तो जैसे अवनि पर
मुझको था अद्भुत स्वर्ग मिला.
उर से उर की बातें होतीं,
निजवर्ग मिला, सुखसर्ग मिला.

इस पार प्रिये बस यादें हैं,
पल चार बिताये जो तुम संग.
ना रस उर में ना कोई मधु,
बस मन का रंग- तुम्हारा 'रंग'.


Inspired by the poem:
"इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा! "
-हरिवंशराय 'बच्चन'

Saturday, March 26, 2011

छोटी सी बात


कौन सी समस्या है जिसका समाधान नहीं है!
या कि हार के बाद जीतने का विधान नहीं है!
बस इतना समझिये कि ज़िन्दगी आसान नहीं है.
हर बात मुमकिन है वहां, जहां अभिमान नहीं है.


Monday, March 7, 2011

एहसास


"..रुकते रुकते चल पड़े मन,
ऐसी आशाओं को हाला,
और चलके रुक जाय जहाँ पर,
वहीँ वहीँ हो मधुशाला!.."

मैंने मंदिर मस्जिद जाकर
ढूँढा प्याला, ढूंढी हाला
सन्मुख बैठा संत जनों के,
नहीं सधा मन मतवाला.
जब भी तेरा ध्यान लगाया
भूला, भटका, भरमाया.
अब जा के एहसास हुआ कि
कहाँ नहीं है मधुशाला!

Monday, February 28, 2011

चाय


चाय की अलग ही बात है!
चाहत इसकी बड़ी निराली.
शाम पकोड़े संग हो,
या सुबह की गरम प्याली.
ये स्वागत-सत्कार
का है मुख्य आधार.
हिंदी हो या चीनी,
पिए सारा संसार.
कोई अगर घर आये,
तब इतना तो निभायिये,
कहिये - 'ज़रा बैठिये,
चाय तो पीते जाईये'.
इज्ज़त बनाने में,
या फिर उतारने में,
इसके बराबर का
न और कोई दूजा.
ग़र न पिलाई चाय,
तो कहेंगे यार
कि 'कमबख्त ने
चाय तक नहीं पूछा!'
चाय है गपशप का,
सबसे बड़ा बहाना .
चाय है उपाय,
जब सुस्ती हो भगाना .
भाई मेरी न मानिए,
खुद की न मानिए,
मगर इसका महत्व,
ज़रा उनसे पहचानिए,
जो करते हैं  PhD ,
काम जिनका 'खीर टेढ़ी'.
फिर भी कितनी तन्मयता से
ये 'चाय-धर्म' निभाते हैं!
दिन में दो-चार बार
चाय पीने ज़रूर जाते हैं.


Thursday, February 24, 2011

दिनकर सा अग्नि में जल तू

    

दिनकर सा अग्नि में जल तू,
पथरीले राहों पे चल तू,
तूफानों को बाँध ह्रदय में
रह इस पथ पर अडिग अटल तू.

तप  की अग्नि से उज्जवल तन हो,
करुणा-दीप से रोशन मन हो,
विपदाओं से घिरी धरा में,
सींच ह्रदय में अथाह बल तू.

सुख की चाह तो क्षणभंगुर है,
ऐसे जीने में क्या गुर है,
वो नर क्या जो मखमल चाहे,
मांग विधा से कंटक-तल तू.

Monday, February 21, 2011

मधुमास



मन की अनबन को छोड़ सखी,
मैं चली पिया के पास.
जो जग छूटे, मोह न मोहे,
बरबस बस इक आस.

पिया प्रेम के आराधन हैं,
उर में उनका वास.
इस बौरन ने घट-घट ढूँढा,
उनका प्रेम निवास.

अथक साधना से पाया है,
ये पावन एहसास.
जो कुछ भी है, सब तेरा है,
तेरी हर इक सांस.


पूर्ण समर्पण मेरा जीवन,
अब ना कोई कयास.
पिया पियारे तीन रंगों में,
रंगा मेरा मधुमास.




Picture Courtsey: Oil paintings reshared from the blog- http://jeanleverthood.blogspot.com/2009/05/poppies-oil-painting-yes-more-poppies.html

Wednesday, February 16, 2011

क्या तुम-सा कोई और कहीं है?




तुम हो जैसे शहद सुमन में.
पारिजात किसी कानन में.
या पावन अभिलाषा कोई
किसी मनीषि के साधन में.
गीत नया है, रीत नयी है.
क्या तुम-सा कोई और कहीं है?


तुम्हे देख मन खिल जाता है,
अपने बिम्ब से मिल जाता है.
जब भी तुम सन्मुख होती हो,
अंतर्मन निखिल पाता है.
तुम हो जहां, बहार वहीँ है.
क्या तुम-सा कोई और कहीं है?


मीठी-प्यारी तुम्हारी बातें,
रोम-रोम पुलकित कर जाती.
इक मधुर मुस्कान तुम्हारी
बुझता मन जीवित कर जाती.
तुम-सा सानी कहीं नहीं है.
क्या तुम-सा कोई और कहीं है?


Picture: A shot taken in Kem Sentosa (Malaysia)


For my hypothetical girlfriend, jo hai, kahin na kahin! :)

Saturday, January 29, 2011

वसंत




झड़ते-बिखरते,
सूखे पीले पत्ते.
नव-आवरण को
वृक्ष तरसते.
सब्र करो, उग आयेंगे
फिर से हरे पत्ते!

चिड़ियों की चहक से
चहकती-सी दुनिया.
फूलों की खुशबू से
महकती-सी दुनिया.
कई छोड़ चले, कई आएंगे
फिर से चमकते दमकते!
 
क्यूँ हो मन में
विरह का क्षोभ?
क्यूँ पाले कोई
मिलन का लोभ?
कहती नियति- ढल जायेंगे
यूँही मिलते-बिछड़ते!
Picture Courstey: Mark Schellhase http://commons.wikimedia.org/wiki/User:Mschel

Dedicated to my close-to-heart friends Saurabh, Srishti and Vishal-  you make the spring of my life...

Saturday, January 1, 2011

गीत नया गुनगुना ऐ मन



गीत नया गुनगुना ऐ मन.
दिल के तार बजे छन-छन.
तोड़ के सारे कुपित बंधन,
उन्मुक्त छिड़े सौरभ मन-उपवन!

देखो गाता मंद-समीर यह,
देखो झूम रहा है कण-कण.
प्रेम-माधुर्य को कर आलिंगन,
वर्ष है आया यह नव-नूतन.

कोई दिल की बात छुपे ना,
शब्द पिरो ले जैसे दर्पण.
और झूमे इनके संगीत में,
स्नेह-विभोर अपना यह जीवन.


Dedidated to Swarn Di, who has always been so inspiring for me!