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Sunday, January 5, 2025

ए आई

 


जहां जाना है, उस ओर कदम नहीं बढ़ रहे,
और जहां नहीं जाना, मन वहीं खींचा जाता है!
यह आत्मबल क्या चीटियों से भी क्षीणतम नहीं?
इस मन का हाल क्या दुर्योधन से भी कम नहीं?
जो जानता है धर्म क्या है, फिर भी प्रवृत्ति नहीं,
और पता है अधर्म क्या है, फिर भी निवृत्ति नहीं!
आखिर यह दुर्योधन इतना बलशाली कब हुआ,
और बुद्धिरूपेण अर्जुन इतना खाली कब हुआ?
क्यों विषाद-स्तब्ध वह कृष्ण को नहीं पुकारता?
गीता के अगले अध्याय के पृष्ठ तक नहीं निहारता!
कब इतना जकड़ गया कि तामसिक बन गया?
स्वयं के बनाएं तार में ही कितना उलझ गया!
नेचुरल इंटेलिजेन्स से परिपूर्ण अर्जुन अब हारने लगा है,
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस अब बाजी मारने लगा है!

५ जनवरी २०२५
बॉस्टन 


Thursday, January 9, 2014

फिर से रंग दे!



मन कलिक-कालिमा लिप्त हुआ,
नयनों में भी बस धुआं-धुआं,
अधरों की हंसी भी खोयी सी,
अंतस का दीप भी बुझा हुआ.
इस रंगहीन को अपना संग दे,
रंगरेज़ मेरे, चल फिर से रंग दे!

बीती का बोझ बड़ा भारी है,
इसमें दबती दुनिया सारी है.
किसका पथ निष्कंटक होता है,
किसमें केवल कुसुम क्यारी है!
बीती बिसार, पग नव-पथ धर दे,
रंगरेज़ मेरे, चल फिर से रंग दे!


रंग पक्का कच्चे से ही होता है,
वो ही पाता है, जो खोता है,
कौन ही अथक निखर पाता है,
जो ख़ुद ही सपनों में सोता है!
अब मन बसंत, तन धानी कर दे,
रंगरेज़ मेरे, चल फिर से रंग दे!

Wednesday, November 27, 2013

यात्रा


इच्छाओं का बहाव
विपरीत, प्रतिकूल।
जीवन की तलाश में 
मृत्यु का सा शूल।
दुर्गम जटिल पथ 
सदा सम्बलदायक।
परा-शक्ति पर करती
अंतस को उन्मूल।
जो गिरता सो उठता,
उठा हुआ गिर जाता, 
जो भूला सो सीखा,
जो सीखा करता भूल।
ख़ाक छान ही बना सिकंदर,
और बनके फांके धूल!

Picture Courtesy: Illusion of depth by Ariel Freeman http://arielfreeman.blogspot.com/

Tuesday, September 10, 2013

संशय


एक वृत्त बाहर,
एक वृत्त भीतर
सिकुड़ती त्रिज्याएँ,
घुलती मिथ्याएं
सघन संकुचन,
अंतस क्रंदन
उच्छावास-निश्वास मे
उलझा हुआ प्राण,
निर्वात को कहे क्या-
जीवन या मृत्यु?

जो ये सिकुड़न घोल दे
भीतर का वृत्त, 
तो कर्म के बंधन में
फिर से आवृत्त
एक जीवन फिर ढूँढूँगा
या फिर टूट जाय अगर 
बाहर का वृत्त,
तो हो जाऊं अन्वृत्त,
अनाकार, निर्विचार
जीवन से परे-
या मृत्यु में घुल जाऊंगा?
 
 
Picture Courtesy: http://pressingpause.com/2012/03/19/extra-circular-activities/

Saturday, April 13, 2013

लाइफ का हैंग-ओवर



जीवन का मदिरालय प्यारा,
भांति-भांति से भरता प्याला,
रंग हो चाहे जो हाले का,
नशा सभी ने जम के पाला। 

ज्यों ही एक नशे की सरिता
करे पार, हो जाए किनारा,
त्यों ही दूजी सरिता आकर
मिल जाए, बह जाए किनारा।

हर पग रुकता, थमता-झुकता,
फिर भी आगे बढ़ता रहता,
कौन नशा जीवन से बढ़कर-
डगमग में भी स्वयं संभलता!

हर निशा में एक मधु है,
हर तम लाती एक नशा है,
हो अधीर फिर भी है पीता,
भूले स्मृति-उसकी मंशा है।

लेकिन भूल कहाँ पाता है!
स्मृतियाँ फिर भी आती हैं। 
और नशे में नित-नित नव-नव
श्रृंखलाएं बनती जाती हैं।

मगर अंत में एक प्रकाश फिर 
अंतस उज्जवल कर जाता है,
बड़े जतन से जाते जाते
ही लाइफ का हैंग-ओवर जाता है!

Picture Courtesy: Priyadarshi Ranjan

Wednesday, February 27, 2013

अब रात कहाँ आती है यहाँ!



इक दौर मुक़म्मल होता था
सच-झूठ का, जीत-हार का,
इक दौर था जीने-मरने का,
इक दौर था नफरत-प्यार का.
अब तो जीते जो हारा है,
सच से अब झूठ ही प्यारा है,
कि कई नावों में पैर यहाँ,
ढूंढे अब कौन किनारा है!
कोई बूझ के भी अनबुझ सा है,
कि फेक है क्या सचमुच सा है,
होते थे कभी दिन-रात यहाँ,
अब तम-प्रकाश का फर्क कहाँ?
दिन के घनघोर उजाले में
अंतस में तम घर करता है,
अब रात कहाँ आती है यहाँ,
सबकुछ बेदार चमकता है!

Saturday, February 16, 2013

मन माटी रे!




सुख की वृष्टि, दुःख का सूखा,
कभी तुष्ट, कभी प्यासा-भूखा,
वन हैं, तृण है, नग है, खोह है,
विस्तृत इसकी चौपाटी रे!
मन माटी रे! 

नेह नीर से सन सन जाए,
कच्चे में आकार बनाए,
और फिर उसको खूब तपाए,
ये कुम्हार की बाटी रे!
मन माटी रे! 

मेड़ बना चहु ओर जो बांधे,
फिर क्या कलुषित लहरें फांदे!
तुष्ट ह्रदय सम शीत उष्ण जो,
सुफल तरुवर उस घाटी रे!
मन माटी रे! 

जो बहाव को बाँध न पाए,
या कच्चे में तप ना पाए,
और लहरों में घुलता जाए,
खुद की नियति फिर काटी रे!
मन माटी रे!

Sunday, January 13, 2013

तुम नेह सींच सींच लेना



जो नयन तुम्हारे थक-थक जाएं,
और निंदिया हौले-हौले आए,
पलकों के पीछे पलते स्वप्न हों, 
तो न आँखें मींच मींच लेना,
तुम नेह सींच सींच लेना। 

जिनमें मधुर सरिता हो बहती,
स्नेहिल स्वर्ण कणिका हो रहती,  
उन स्वप्नों को लेना तुम थाम,  
और बांहों में भींच भींच लेना, 
तुम नेह सींच सींच लेना। 

जब होते स्वप्न हो विदा विदा,
मत होना उनसे जुदा जुदा,
तुम निद्रा-पटल से बाहर आकर 
उन्हें साकार खींच खींच लेना, 
तुम नेह सींच सींच लेना।

Dreams are inner expressions,
Dreams are the life's inspirations,
Dreams are where the reality is seeded
Dreams are where the love sprouts
Dream love, dream cheers,
Dream for self, dream for peers,
Dream and dream, until you realize
Dream and never let your dream die.


Picture Courtesy: http://www.hindi2tech.com/2010/09/blog-post_17.html

Saturday, January 5, 2013

आज़ादी के मायने

Dedicated to 'the braveheart'
********************************
आज़ादी के मायने 

खुद ही सारे जिस्म को 
ज़ंजीरों से बाँध लिया, 
और एक अँधेरी कोठरी में
जिंदा दफ़न कर आई।
सोचा एकांत है वहां,
कोई न पहुँचेगा मुझतक,
और कोई न होगा वहाँ 
मुझे प्रताड़ित करनेवाला,
न किसी अन्याय के विरुद्ध
गुहार लगानी होगी मुझे,
और न चाहिए होगा मुझे 
कोई तीमारदारी करनेवाला।
झाँक के उस कोठरी में
यूँही देखा एक बार मैंने,
एक जिस्म थी खोखली सी,
और मैं आज़ाद, बाहर उसके।
**************************************
Picture Courtesy: Pencil Kings, Art by Aditya Ikranagera 


Saturday, November 24, 2012

सागर की कशमकश


नदियों का प्रेम समर्पण का,
उनका तो प्रेम प्रवाह है बस। 
आग़ोश में लेता जाता फिर भी,
सागर की है कुछ कशमकश!

अथाह प्रेम समर्पण का
नदियाँ अपने संग लाती हैं,
पर पत्थर राहों में घिसकर
थोड़ी नमक भी घोल आती हैं।

ये चुटकी भर नमक नहीं
नदियों का मीठापन हरता है,
लेकिन यूँही बूँद-बूँद कर
सागर को खारा करता है।

और जब नदियाँ बादल बनकर
उड़ जाती सागर के ऊपर,
तो फिर बचता सागर में बस
उनका त्यागा नमक चुटकीभर!

सदियों के इस सिलसिले में
सागर खारा होता जाता है,
फिर भी प्रेम कहो कितना जो,
नदियों को फिर भी भाता है!


Inspired by बावली नदी

Dedicated to dear Anu di :) 

Picture Courtesy: http://www.nwfsc.noaa.gov/research/divisions/fed/oceanecology.cfm

Monday, November 12, 2012

क्या ही रौशनी बख्शी है !



तेरी हर वो आहट
जो मुझे उतरन-सी लगी,
तूने मुझे उसमे
ऊँचाई ही बख्शी है !

ये कैसा दरिया है
कि जहाँ डूबा,
वहीं पार भी हुआ,
क्या ही ज़िन्दगी बख्शी है !

कभी तो ऐसा था 
कि सब्रो-करार न था,
अब इन थमी साँसों में भी
बन्दगी ही बख्शी है !

इक अँधेरा ही तो था,
ये जो उजाला है अभी,
दीप जो मन का जला है,
क्या ही रौशनी बख्शी है !

Friday, October 26, 2012

मिथ्यावरण


यह पूनम भी अमानिशा सी
अँधियारा लिपटाती जाती.
औ' बैरन-सी भयी बयार भी
कुटिल शीत कड़काती जाती.

उजियारा बस कहने को है,
अंतर तम का घोर कहर है.
बाहर के चकमक में उर ये
अंतस लौ झुठलाती जाती.

तज दे झूठी राग चमक की,
तज दे अब ना और बहक री,
चल रे अब तू भीतर चल री,
क्यूँ खुद को भरमाती जाती!


O my conscience,
hold me tight.
I'm swaying away,
escape the plight.
For it's so fake-
this outside light.
'n I'm ruining away
my so rich life.
I have to go back,
back- deep inside.
O my conscience,
hold me tight. 



Picture Courtesy: http://nmsmith.deviantart.com/art/Inner-Light-132644163

Wednesday, October 3, 2012

ओ अंधियारे के चाँद



ओ अंधियारे के चाँद तेरी
चमक फीकी पड़ती जाए...
काले से पखवाड़े में क्यों
काला तू पड़ता जाए ?.. 

कोई देखे, कोई ना देखे
अब किसे कौन समझाए...
इस ओर से काला होकर भी
उस ओर तू चमका जाए..

तू है धरा के पास-पास,
चमके, कभी तू धुंधलाए...
क्यों पूनम की चमक तुझे
इक दिन से ज़्यादा न भाए..

देख तो सूरज चमके कैसे
हर दिन एक सुभाए...
तुझे धरा से दूर चमकना
क्यों फिर रास न आए?

अमानिशा के बाद तुझे
फिर से मेरी याद सताए...
मेरी अंधियारी रातों को
फिर से तू चमकाए!!

Saturday, September 22, 2012

हमप्याले...


क्या खाली, क्या भरा यहाँ पे,
सबके हाथों में है प्याला.
सबका एक नशा निश्चित है,
सबकी अपनी-अपनी हाला.
कुछ पी-पी कर जीते हैं और
कुछ जी-जी कर पीते हैं,
नशा नहीं लेकिन सम सबका,
एक नही सबकी मधुशाला.

असमंजस का डेरा जमता,
कितने प्याले! कितनी हाला!
कौन नशा उत्तम है करता,
किसकी हाला, अव्वल हाला?
प्रियतम, पीने के पहले ही,
हम-प्याले तुम ऐसे चुनना,
जिनका एक नशा, इक हाला,
एक हो जिनकी मधुशाला.

Picture Courtesy: Jeet (Jeetender Chugh)

Saturday, May 26, 2012

सीढियां


जो ऊपर की ओर जाती हैं,
वही सीढियां नीचे भी आती हैं.
और सीढियां चढ़ने-उतरने की
कई विधाएं भी पायी जाती हैं!

कुछ लोग एक-एक कदम बढ़ाते हैं,
कुछ लोग बस फांदते ही जाते हैं.
और कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो
हर सीढ़ी पर दोनों कदम जमाते हैं.

और वैसे ही उतरना भी कला है.
धीरे-धीरे उतरना बेहतर होता है,
क्यूंकि जल्दी-जल्दी उतरने में
लड़खड़ाने का ख़तरा ज्यादा होता है.

बात तो बस रिस्क की है,
कौन कितना उठा पाता है.
जो जितना रिस्क उठाता है
वो उतना ही बढ़ता जाता है.

लेकिन चढ़ने और उतरने के क्रम में
एक विशेष अंतर होता है,
कि कूदकर उतरना तो आसान होता है
मगर उछलकर चढ़ पाना-
ज़रा मुश्किल होता है !



Picture Courtesy: http://wellness-nexus.blogspot.com/2012/03/climb-steers-of-success.html

Thursday, May 24, 2012

परिपक्वता

The serene calmness and quietness of a candle (diya) gets more and established only with time!


 

तब ज़िद्दी बच्चों-सा
मांगता रहा तुमसे
और ये भी पता न था
कि माँगना क्या है!

अब समझ है इतनी
कि चाहिए क्या मुझे,
और जानता हूँ ये भी
कि माँगना क्या है!

फिर भी नहीं मांगता!
क्यूंकि मन में तुमने
विश्वास जो भर दिया है,
कि भला माँगना क्या है!

शायद यही परिपक्वता है!

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I used to ask for everything
like an unyielding child
without even knowing
what is that I actually need!

With time, we grow and realize
what should we actually ask for.
Now I know what is that
I really really need.

But I won't even ask you
to give me what I want!
For, you've bestowed me such a faith
that I can get it, whatever I want.

Perhaps this is what maturity is!
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Picture Courtesy: Santanu Sinha

Thursday, April 12, 2012

ओढ़ने की चादर


मैं, साढ़े-पांच का.
और साढ़े-पांच की
मेरी चादर भी.
हर रात बस
एक ही कशमकश
या तू थोड़ी लम्बी होती,
या मैं ही थोड़ा छोटा होता!

Picture Courtesy: http://2.bp.blogspot.com/

Wednesday, March 28, 2012

अधजल गगरी

जब तक थोड़ी भी अज्ञानता है, तब तक सम्पूर्णता नहीं है... और जब तक सम्पूर्णता नहीं है, तब तक ये मन तो अधजल गगरी ही है ना... कैसे समझाऊँ इसे... ? 

काहे छलको रे गगरी अधजल,
समझो सुधि अपनी तेज चपल?
जब जानते हो जीवन है जल,
करना मुट्ठी में प्रयास विफल.

गिरना, लेकिन मत होना विकल
अंतर नित-नित तुम करना प्रबल,
जीता उसने निज जीवन को
सीखा जिसने है जाना संभल.

उर में अब प्रेम अगाध लो भर
धर लो मन में ये विचार विमल
चलना पथ पर तुम धीरज धर
छलके न कभी गगरी अधजल.

Picture Courtesy:http://www.paintingsilove.com/image/show/216073/indian-village-woman 

Thursday, March 22, 2012

Entropy-ism 3




जो क्षण आया है, जाएगा,
क्या सोचो तुम रह जाएगा
इक तुम होगे, अतीत होगा,
बाकी सब कुछ बह जाएगा। 

यह जान प्रिये अनजान बनो,
अब छोड़ो हठ, नादान बनो,
हाथों में बस इक प्याला हो,
मन में हो मधु, मधुशाला हो।  
 

मधुशाला वो जो रस बरसे,
इक सुन्दर सा स्वरूप निखरे,
हों पुष्प जहाँ पल्लवित सदा,
नेह, प्रेम के भाव बिखरे.

मधुशाला हो अतीत को भूलना,
औ' भविष्य की चिंता न करना,
ये हो अविरत उत्सव का विधान,
जो है वर्तमान, उसी का गुणगान.


Picture Courtesy:Priyadarshi Ranjan

Friday, March 9, 2012

अभिलाषा




मैं तो बिखरे तिनकों-सा था,
तुमने मुझको ऐसा ढाला,
खग-सा उड़ता मैं चिदाकाश में
संग-संग उड़ती ये मधुशाला.

तुम सिन्धु सुधा की निर्झर
मैं था प्यासा, पीनेवाला
तुमसे ही कुछ बूँदें पाकर
तृप्त हुई मेरी मधुशाला.

इन साँसों में अब बसना तुम,
उर में हो तुमसे ही उजाला,
स्नेह-मदिरा अविरत ढरती हो,
अक्षुण्ण रहे ये मधुशाला.

Picture Courtesy: Vimal Kishore