Tuesday, May 1, 2012

निर्वाण दो !





तुम्हारा सानिध्य हो
संकीर्णता से परे.
इन अस्थिर नयनों के
व्याकुल तरंगों को
चिर विश्राम दो,
मन को निर्वाण दो !

सफ़ेद चादर मन,
स्याह काली व्याकुलता,
बरबस लगते दाग,
कैसी ये अस्थिरता!
धुल जाए प्रारब्ध
ऐसा वरदान दो !
मन को निर्वाण दो !

निस्वार्थ अभिलाषाएं,
निजता का परित्याग,
अविरत चिर प्रखर
तप का विधान दो !
मन को निर्वाण दो !
 
Picture Courtesy: Priyadarshi Ranjan


P.S. http://lifewillbedifferentfromnowon.blogspot.in/2012/05/bear-grylls-that-she-is-not.html ) जब लिख रहा था तब बहुत विचलित था मन, और बार-बार यही ख्याल आ रहा था कि बस, बहुत हुआ, अब सब कुछ शून्य हो जाए... ताकि ना सुख रहे, ना दुःख... और इन सब से ऊपर उठकर मैं अपना जीवन निस्वार्थ  सेवा में सार्थक कर सकूं. मानता हूँ, निर्वाण परमगति है, परन्तु ईश्वर से यह मांगने की इच्छा जताकर कम-से-कम अपनी स्वार्थ-परक भावनाओं में लिप्त मन को शांत कर सकता हूँ.

32 comments:

  1. कोमल ,पावक स्वेत से भाव मन के ....
    बहुत सुंदर अभिव्यक्ती ....
    बधाई एवं शुभकामनायें .....!

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  2. गहन भाव लिए पंक्तियाँ......

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  3. निस्वार्थ अभिलाषाएं,
    निजता का परित्याग,
    अविरत चिर प्रखर
    तप का विधान दो !
    मन को निर्वाण दो.... अद्धभुत अभिव्यक्ति ....
    तथास्तु बोलती और
    दुसरे की सारी ईच्छायें
    पूरी हो जाती ....लेकिन ,
    दुआ जरुर कर सकती ....
    सारी पूरी हो छोटू की छोटी-बड़ी ईच्छायें .... !!

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  4. निस्वार्थ अभिलाषाएं,
    निजता का परित्याग,
    अविरत चिर प्रखर
    तप का विधान दो !
    मन को निर्वाण दो !

    बहुत बढ़िया प्रस्तुति,प्रभावित करती सुंदर रचना,.....बधाई मधुरेश जी

    MY RECENT POST.....काव्यान्जलि.....:ऐसे रात गुजारी हमने.....

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  5. अनुपम भाव संयोजित करती उत्‍कृष्ट अभिव्‍यक्ति ।

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  6. बहुत सुंदर ....

    लाजवाब रचना
    बधाई मधुरेश.

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  7. निस्वार्थ अभिलाषाएं,
    निजता का परित्याग,
    अविरत चिर प्रखर
    तप का विधान दो !
    मन को निर्वाण दो !

    ....बहुत सुन्दर भावमयी प्रार्थना....

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  8. सफ़ेद चादर मन,
    स्याह काली व्याकुलता,
    बरबस लगते दाग,
    कैसी ये अस्थिरता!
    धुल जाए प्रारब्ध
    ऐसा वरदान दो !
    मन को निर्वाण दो !

    बहुत ही सुन्दर और सार्थक पंक्तियाँ ।

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  9. शब्द संयोजन और भाव अत्यंत खूबसूरत

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  10. संगीता आंटी, आपका आभार!
    सादर,
    मधुरेश

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  11. मधुरेश जी,
    इतनी छोटी उम्र में आपने इतनी सुन्दर, भावपूर्ण और अध्यात्मिक पहलू की कविता लिखी है, जो निश्चित ही सराहनीय है... मेरी शुभकामनाएं हैं कि आप इस विधा में और ऊचाइयां स्पर्श करें.. एक शंका है कि पहले छंद में आपने लिखा है
    चिर विश्राम दे,
    मन को निर्वाण दे
    और शेष छंदों में "दे" के स्थान पर "दो" का प्रयोग किया है.. गेय शैली में लिखी गयी इस सुन्दर कविता में यह मुझे टंकण की ही त्रुटि प्रतीत होती है.. शुभकामनाएं!!

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    1. अंकल, इस स्नेह और आशीष का आभारी हूँ. आपकी मूल्यवान टिप्पणी के लिए बहुत धन्यवाद.
      सादर
      मधुरेश

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  12. अत्यंत खूबसूरत भावों से पिरोया हुआ सुन्दर अभिव्यक्ति.....

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  13. sundar shbd chayan ne kavita ko aur adhik kauymay bana diya hai...

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  14. सुन्दर गहन भाव ..खूबसूरत शब्द...बहुत सुन्दर रचना.

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  15. मन को छू गई आपकी कविता...बहुत सुन्दर....शुभकामनायें.

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  16. ये निर्वाण ही हमारा आखिरी मुकाम होता है जो प्रभु की कृपा से ही मिलता है.. एक अलग ही अनुभूति हुई...

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  17. निस्वार्थ अभिलाषाएं,
    निजता का परित्याग,
    अविरत चिर प्रखर
    तप का विधान दो !
    मन को निर्वाण दो !

    भव-प्रवण कविता ........अच्छी लगी । मेरे पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।

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  18. मधुरेश जी ,
    बहुत ऊँची कल्पना है आपकी - पर मन का निर्वाण ?
    सारे बोधों को ग्रहण करनेवाला ,सदा सक्रिय कुछ-न कुछ जोड़-तोड़ करता हुआ , मन को मन ही रहने दीजिये .नहीं तो हम हम नहीं रहेंगे !

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  19. bahut sundar rachna -------man ko nirvan-----sundar bhav

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  20. निस्वार्थ अभिलाषाएं,
    निजता का परित्याग,
    अविरत चिर प्रखर
    तप का विधान दो !
    मन को निर्वाण दो !

    सुंदर उड़ान. भावपूर्ण प्रस्तुति.

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  21. निस्वार्थ अभिलाषाएं,
    निजता का परित्याग,
    अविरत चिर प्रखर
    तप का विधान दो !
    मन को निर्वाण दो !

    बहुत सुंदर आदर्श से भरपूर ।

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  22. तुम्हारा सानिध्य हो
    संकीर्णता से परे.
    इन अस्थिर नयनों के
    व्याकुल तरंगों को
    चिर विश्राम दो,
    मन को निर्वाण दो !
    बहुत सुंदर कामना..आमीन !

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  23. निस्वार्थ अभिलाषाएं,
    निजता का परित्याग,
    अविरत चिर प्रखर
    तप का विधान दो !
    मन को निर्वाण दो ! मधुरेश जी इतने सुन्दर लेखन के लिए बधाई

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  24. सफ़ेद चादर मन,
    स्याह काली व्याकुलता,
    बरबस लगते दाग,
    कैसी ये अस्थिरता!...

    ये जीवन है ... उतर चड़ाव आते रहते हैं और इसी अनुसार मन अस्थिर होता रहता है ... सुन्दर लिखा है ...

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  25. बहुत ही परिपक्व विचार और भावों कि सुन्दर प्रस्तुति का संगम ....

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  26. मधुरेश भाई....ये सोचकर मैं हतप्रभ हूँ कि आज के युवा भी ऐसा लिखते हैं। ईश्वर परम सत्य है। वह असीमित, अजन्मा , अपरिमित और अगेय है। और शायद यही कारण कि जब जब मन व्यथित होता है हम उस परमपिता से उस परमगति की माँग करते हैं जो इस भ्रान्तिमान जगत में नही मिलती। मैं इन बातों को इसलिये अनुभव कर पा रहा हूँ क्योंकि आजकल मैं भी इन्ही भावों को जी रहा हूँ
    बहुत ही सुन्दर रचना...
    आभार

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  27. बहुत सुन्दर रचना...बहुत अच्छे विचार.

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